Wednesday, January 30, 2019

Nostalgia...


यादों के अरण्य में,
भटकते है हम,
जिन्हें खोजते है,
और सोचते है हम..

कहीं छाया दिखती है
कहीं भ्रम होता है,
उनकी आहट मिलती है,
और खो जाते है हम..

यही वो मिला था,
वहां वो हंसा था,
कहाँ वो जुदा था,
सोचते है हम..

पर उन जगहों पर,
वो नही मिलते,
मिलते है तो बस,
उनकी यादों से हम..

जितेंद्र...



Thursday, January 24, 2019

वजूद..


तुम्हे खोजता हूँ,
या खुद को,
तुम एक बहाना हो,
कह दो मुझको..

वजूद मेरा है,
या अस्तित्व तुम्हारा,
तुम एक फ़साना हो,
लगा जैसे मुझको..

मेरी कोई ख्वाहिश,
या तुम्हारी तलाश,
तुम! सच मे तुम हो?
लगता नही मुझको...

जितेंद्र..


Wednesday, January 23, 2019

ये रास्ते..


ये रास्ते,
जो कही जा रहे है,
इन्हें मेरी जरूरत नही है,
मुझे इनकी जरूरत है।

ये रास्ते,
ये कही तो जाते होंगे,
मुझको न सही, पर किसी न किसी को-
मंज़िल तक तो पहुंचाते होंगे।

ये रास्ते,
जो सदियो से यही थे,
आज इन पर मैं चल रहा हूँ,
कल कोई और था, कल कोई और होगा।

ये रास्ते,
ये सही या गलत नही होते,
ये अपने या पराये होते है,
ये किसी के दिखाए या किसी के आजमाए होते है।

ये रास्ते..... ये बस होते है...


Sunday, January 13, 2019

अहं ब्रह्मास्मि...

अम्बर,
अम्बर में दिनकर,
दिनकर तले पर्वत,
पर्वत तले सरोवर,
सरोवर से लगी धरती,
धरती पे उगी झाड़ी,
झाड़ी में छिपा अक्स,
अक्स में छिपी इच्छा,
इच्छा में मैं,
मुझमे ये ब्रह्मांड,
ब्रह्मांड में सारा जहान..

जितेंद्र..

Saturday, January 5, 2019

धूप का एक टुकड़ा...

कुछ चीजों को देखने की उत्सुकता जीवन-भर खत्म नहीं होती। अब देखिए, आप इस पेरेंबुलेटर के आगे बैठे थे। पहली इच्छा यह हुई, झाँक कर भीतर देखूँ, जैसे आपका बच्चा औरों से अलग होगा। अलग होता नहीं। इस उम्र में सारे बच्चे एक जैसे ही होते हैं - मुँह में चूसनी दबाए लेटे रहते हैं। फिर भी जब मैं किसी पेरेंबुलेटर के सामने से गुज़रती हूँ, तो एक बार भीतर झाँकने की जबर्दस्त इच्छा होती है। मुझे यह सोच कर काफी हैरानी होती है कि जो चीजें हमेशा एक जैसी रहती हैं, उनसे ऊबने के बजाय आदमी सबसे ज्यादा उन्हीं को देखना चाहता है, जैसे प्रैम में लेटे बच्चे या नव-विवाहित जोड़े की घोड़ा-गाड़ी या मुर्दों की अर्थी। आपने देखा होगा, ऐसी चीजों के इर्द-गिर्द हमेशा भीड़ जमा हो जाती है। अपना बस हो या न हो, पाँव खुद-ब-खुद उनके पास खिंचे चले आते हैं। मुझे कभी-कभी यह सोच कर बड़ा अचरज होता है कि जो चीजें हमें अपनी ज़िंदगी को पकड़ने में मदद देती हैं, वे चीजें हमारी पकड़ के बाहर हैं। हम न उनके बारे में कुछ सोच सकते हैं, न किसी दूसरे को बता सकते हैं। 
किसी चीज का आदी न हो पाना, इससे बड़ा और कोई दुर्भाग्य नहीं। वे लोग जो आखिर तक आदी नहीं हो पाते या तो घोड़ों की तरह उदासीन हो जाते हैं, या मेरी तरह धूप के एक टुकड़े की खोज में एक बेंच से दूसरी बेंच का चक्कर लगाते रहते हैं।
यह आपको कुछ अजीब नहीं लगता कि जब हम किसी व्यक्ति को बहुत चाहने लगते हैं, तो न केवल वर्तमान में उसके साथ रहना चाहते हैं, बल्कि उसके अतीत को भी निगलना चाहते हैं, जब वह हमारे साथ नहीं था! हम इतने लालची और ईर्ष्यालु हो जाते हैं कि हमें यह सोचना भी असहनीय लगता है कि कभी ऐसा समय रहा होगा, जब वह हमारे बगैर जीता था, प्यार करता था, सोता-जागता था। फिर अगर कुछ साल उसी एक आदमी के साथ गुजार दें, तो यह कहना भी असंभव हो जाता है कि कौन-सी आदत आपकी अपनी है, कौन-सी आपने दूसरे से चुराई है... जी हाँ, ताश के पत्तों की तरह वे इस तरह आपमें घुल-मिल जाती हैं कि आप किसी एक पत्तों को उठा कर नहीं कह सकते कि यह पत्ता मेरा है, और वह पत्ता उसका।
कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि मरने से पहले हममें से हर एक को यह छूट मिलनी चाहिए कि हम अपनी चीर-फाड़ खुद कर सकें। अपने अतीत की तहों को प्याज के छिलकों की तरह एक-एक करके उतारते जाएँ... आपको हैरानी होगी कि सब लोग अपना-अपना हिस्सा लेने आ पहुँचेंगे, माँ-बाप, दोस्त, पति... सारे छिलके दूसरों के, आखिर की सूखी डंठल आपके हाथ में रह जाएगी, जो किसी काम की नहीं, जिसे मृत्यु के बाद जला दिया जाता है, या मिट्टी के नीचे दबा दिया जाता है। देखिए, अक्सर कहा जाता है कि हर आदमी अकेला मरता है। मैं यह नहीं मानती। वह उन सब लोगों के साथ मरता है, जो उसके भीतर थे, जिनसे वह लड़ता था या प्रेम करता था। वह अपने भीतर पूरी एक दुनिया ले कर जाता है। इसीलिए हमें दूसरों के मरने पर जो दुख होता है, वह थोड़ा-बहुत स्वार्थी क़िस्म का दुख है, क्योंकि हमें लगता है कि इसके साथ हमारा एक हिस्सा भी हमेशा के लिए खत्म हो गया है।

(निर्मल वर्मा की कहानी धूप का एक टुकड़ा से उद्धरित)

ये काल्पनिक दुनिया..

काल्पनिक दुनिया के ये मुस्कराते हुए चेहरे,
मैं भी उनके जैसा मुस्काने की कोशिश करता हूँ,
उनके जैसे ही बनने की कोशिश करता हूँ,
पर सफल नही होता, औंधे मुंह गिरता हूँ।

मैं "मैं" नही होना चाहता, वो बनना चाहता हूं,
जो मैं हु ही नही, जिसमे मेरी खुशी नही,
और जिसमे मेरी खुशी है, मैं अकेला पड़ जाता हूं,
जैसे कि मैं हु ही नही, मेरा अस्तित्व ही नही...