Friday, September 21, 2012

धूप की एक किरण...

दीवार में लगे झरोखे से,
कमरे में धूप उतर आई.
चुपके से बिना कुछ कहे,
बिना मुझे कुछ बताये.

उस पीले रंग के धब्बे पर,
सहसा मेरी नज़र गयी.
मेरी आंखे रोशन कर के,
वो खुद भी चमकने लगी.

मैं उसको निहारता रहा,
परत दर परत.
आँखों में उसको भरता रहा,
काफी देर तलक.

कुछ देर पहले,
यह इस कोने में थी.
और अब चल कर 
उस कोने चली गयी.  

शाम होते-होते,
सूरज ढल जायेगा.
और कमरे में आई किरण का,
नामो-निशान भी मिट जायेगा.

और कमरा फिर से,
खाली हो जायेगा.
जैसे किरण कभी यहाँ-
आई ही नहीं थी.

क्या मैं किरण- 
की ही बात कर रहा हूँ?
या फिर ये मेरी जिंदगी है?
जिस पर पर मैं ये सवाल कर रहा हूँ?
जीतेन्द्र गुप्ता

Monday, September 17, 2012

एक शब्द: "प्यार"...

कुछ दिन के लिए बस,
मुझे प्यार हो गया था.
बातों-बातों में ही,
इकरार हो गया था.

पर यह इकतरफा प्यार,
ज्यादा दिन नहीं चला.
प्यार का भूत जब उतरा,
लगा मैं बीमार हो गया था.

शुरू में ही उसने मना किया था,
वो प्यार के अंजाम से डरती थी.
"इस प्यार का कुछ नहीं हो सकता!"
शायद वो बहुत सोचकर प्यार करती थी?

वो सही थी, पागल मैं ही था.
प्यार की हवाओं में बहता गया.
गर पहले सोच लेता तो मायूस न होता?
पर इतना सोच कर तो प्यार किया नहीं जाता?
 जीतेन्द्र गुप्ता

Sunday, September 16, 2012

तन्हा ख़ुशी..


हर रोज़, शाम को, जब मैं काम करके लौटता हूँ,
दिन भर की थकान के साथ, कमरे में अकेला होता हूँ.

दिन ढल रहा होता है और खिड़की से सड़क के उस पार-
खड़ा दिख रहा,अशोक का पेड़ भी शोक मना रहा होता है.

मेज पर ढेर सारी किताबें, इधर-उधर पड़े हुए बेतरतीब कपड़े,
कुछ और जरुरत के सामान, कमरे का एक श्रोत प्रकाशमान.

बस मैं होता हूँ और मेरा कल्पना लोक होता है.
मन जो सृजित करता है, कोरे कागज़ पर साकार होता है.

मैं शब्दों से खेलता हूँ, ख़ामोशी से बाते करता हूँ,
सन्नाटे को सुनाता हुआ, कविता बनाता हूँ

नहीं! मैं कवि नहीं हूँ, मेरी कविता में कोई रस नहीं होता,
मैं लेखक भी नहीं हूँ, मेरे पास लिखने को कुछ नहीं होता.

मैं आजाद होता हूँ, अपने ख्यालों की दुनिया में,
अपने तनहा बंद कमरे में, मैं बहुत खुश होता हूँ.

जीतेन्द्र गुप्ता 

Sunday, September 9, 2012

तेरी जुस्तजू ...


जिंदगी के कुछ पल, जाने कहाँ खो गए,
आँखे खुली हुयी थी, और हम सो गए.

हमको नहीं किसी से, कुछ भी गिला-शिकवा,
हम तो सदा ऐसे ही थे, ऐसे ही रह गए.

ना सोचा क्या है करना, क्या है बनना बड़े होकर,
अभी तो हम नादान थे, कब इंसान बन गए?

बिन मांगे ही मुझको, दे दिया यूँ प्यार इतना सारा,
ना पूछा की क्यों वो इतना, मेहरबान हो गए?

दस दिन की जिंदगी थी, दो दिन  यूँ  जी लिया,
की बाकी बचे हुए दिन, बेकार हो गए.

जो जीती हमने बाज़ी, तो प्यार था सनम,
जो हार गए तुझको, बदनाम हो गए.

वो वक़्त की थी बाज़ी, या प्यार का इक नगमा?
जिए, जिसको गाकर, हम आबाद हो गए.

"जीतेन्द्र गुप्ता"

Friday, September 7, 2012

कसक..


"कुछ कसक थी शायद,
मन में दबी हुयी,
सिसकियाँ तो आई,
पर किसी ने ना सुनी.

कुछ देर तलक शायद ,
मैं देखता रहा उसको,
फिर मैं भूल गया उसको,
वो भूल गयी मुझको."

"जीतेन्द्र गुप्ता "

आबो-हवा..



सुबह से ही बादल छाए है,
पर बारिश की एक बूंद भी नहीं गिरी.
हवा रात से ही बहुत तेज बह रही है,
पर यह आंधी और तूफान तो नहीं.

यह निश्चित नहीं की बारिश होगी ही,
प्यासी धरती प्यासी ही क्यों न रहे?
और इन हवाओं में भी शायद अब आंधी-
या तूफान बनाने की हिम्मत नहीं बची.

सब कुछ अनियमित सा हो गया है,
गर्मियां लम्बी खीचने लगी है.
सर्दियाँ, खुद ठण्ड से, सिकुड़ने लगी है.
और बारिश का तो कहना ही क्या?

क्या इन हवाओं में भी मिलावट हो गयी है?
या बरखा भी अब अशुद्ध हो गयी है?
सदियों से मानव की संगति में रहकर-
यह पृथ्वी भी जैसे भ्रष्ट हो गयी है.
"जीतेन्द्र गुप्ता "

Wednesday, September 5, 2012

एक ख्वाब..



कल रात अचानक नींद टूट गयी;
घडी देखा तो लगभग एक बज रहे थे;
कुछ देर तक लेटा रहा यूँ हीसोचा-
नींद फिर से आयेगीपर ऐसा नहीं हुआ.

अनंत आकाश मेरे सामने था;
और चाँद पूरे शबाब पर था.
थोड़े बहुत बादल भी छाए थे,
और ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी.

मैंने अपना बिस्तर छोड़ दिया,
और चल कर बालकनी तक पहुंचा.
देखा- दिन में भीड़ से भरी रहने वाली;
घर के सामने की सड़करात में वीरान पड़ी थी,

सन्नाटा इस कदर घुल गया था जैसे,
इस दुनिया में अब कोई न बचा हो.
बस एक मैं थामुझसे कोई न छिपा हो,
और मुझे अपने वजूद का एहसास हो रहा था.

मैं काफी देर वही पर खड़ा रहा,
सोये हुए सन्नाटे  में खोया  रहा.
नींद मुझसे कोसों दूर थी,
पर रात तो अभी शुरू ही हुयी थी.

अनमने-पन से मैं बिस्तर को लौटा,तो देखा-
तुम्हारी यादों की गठरी मेरे सिरहाने  पड़ी थी.
और कोई अनजानी सी चीज थी, 
जो टूटकर पूरे बिस्तर पर बिखर गयी थी.

'ख्वाब ही रहा होगा, शायद', मैंने सोचा,
अँधेरे में उसके कुछ टुकडे चमक रहे थे.
मैंने खुद को जगाया, और उन टुकड़ों को,
समेट कर दुबारा जोड़ने की कोशिश की.

जब ख्वाब के  कुछ टुकडे जुड़ गए आपस में,
और तस्वीर का एक पहलु कुछ साफ़ हुआ, 
तो देखा-एक तो "तुम" ही थे उस ख्वाब में मेरे,
पर मेरी ही उस चीज में 'मैं नहीं था'.
"जीतेन्द्र गुप्ता"

Sunday, September 2, 2012

सच्चा हमसफ़र..


गर्मियों का सूरज, सिर पर चढ़ आता है,
वक़्त कटता नहीं, दिन चढ़ जाता है,
भीषड़ गर्मी और उमस झेली नहीं जाती,
दिन गुजरता है घर में, बाहर निकला नहीं जाता है.

पर वही सूरज शाम तक ढल जाता है,
लालिमा छोड़ क्षितिज पर, अस्त हो जाता है,  
सूरज के साथ ही शाम भी ढल जाती है,
और उजले आकाश का मुंह काला कर जाती है.

मुंह पर लगी कालिख को धोने की प्रत्याशा,
आकाश के चेहरे पर रात में छलक आती है,
रात में सूरज भले ही उसका साथ छोड़ दे,
पर बुरे वक़्त में चन्द्रमा की ही बारी आती है.

कितनी अजीब बात होती है कि चन्द्रमा,
जो खुद सूरज की ही रोशनी से चमकता है,
गर्मी उसकी सोख कर, हमें श्वेत शीतलता देता है,
स्याह अँधेरी रातों का सच्चा हमसफ़र बनता है.
"जीतेन्द्र गुप्ता "