Monday, December 16, 2013

एक छोटा लड़का जो सोना खोज रहा था.…

सुबह-सुबह घूमने के लिए निकला ही था कि पाँव अचानक शाही पुल कि तरफ मुड़ गए। सामने गली थी जो थोड़ी ढलान पर थी और सीधे गोमती नदी की तरफ जाती थी। गली के किनारे हर तरफ मकान बने हुए थे और दोनों तरफ नाली बह रही थी। उसी नाली के बगल में एक छोटा सा लड़का भी बैठा हुआ था जो नाली में बह रहे गंदे पानी को अपनी बाल्टी में इकठ्ठा कर रहा था। नाली से सड़ी हुयी बदबू और अमोनिया कि गंध भी आ रही थी पर वो लड़का इन बातों से अनजान अपने काम में तल्लीन था। 
"छोटू! ये तुम क्या कर रहे हो?" मैंने उस लड़के से उत्सुकतावश पूछा। उस लड़के ने मुझे क्षण भर के लिए देखा फिर अपने काम में दुबारा जुट गया। मैंने उससे दुबारा पूछने कि कोशिश की, "इतनी सुबह तुम नाली क्यों साफ कर रहे हो?"
"मैं नाली नहीं साफ कर रहा हूँ।" इस बार उस लड़के ने जवाब दिया, "मैं इस नाली के पानी में सोने-चाँदी के छोटे टुकड़ों को खोज रहा हूँ।"
नाली में सोने-चाँदी के टुकड़े खोजना अजीब बात थी, फिर भी मैंने उससे आगे पूछा, "भला इस  गन्दी नाली में तुम्हे सोने-चाँदी के टुकड़े कैसे मिलेंगे?"
तो उसने कहा, "नाली का ये गन्दा पानी आस-पास बने स्वर्णकार वर्ग के लोगो के घरों से आता है, ये लोग अपने घरों में ही सोने-चाँदी के जेवरों कि कटाई, ढलाई और धुलाई करते है, और उनकी सफाई के दौरान अक्सर सोने-चाँदी के कुछ टुकड़े इसी नाली में बहते हुए आ जाते है। मैं उसे ही ढूंढ रहा हूँ।"
बात लगभग स्पष्ट हो गयी थी, पर इस तरह से वो दिन भर में कितने पैसे बना लेता होगा? जब मैंने उससे यह बात पूछी, तो उसने कहा, "३०० से ५०० रूपये के लगभग हर रोज। क्यों कि मैं दिन भर कि जमा पूंजी को उन्ही लोगो को वापस बेच देता हूँ, जिनके घरों से निकले गंदे पानी में मैं इसे खोज रहा हूँ।"
इसके बाद वो लड़का मुझसे बात करना बंद कर अपने काम में दुबारा उसी तल्लीनता से जुट गया। मैं उस लड़के को वही छोड़ अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया। 'वास्तव में हमारा कार्य हमारे दृष्टिकोण से परिभाषित होता है और यह इस पर निर्भर करता है कि हम अपने कार्य को किस रूप में देखते है।' मैंने सोचा, 'एक छोटा लड़का, जो कि नाली साफ़ कर रहा था, वास्तव में वो नाली न साफ़ करके उसके गंदे पानी में सोने-चाँदी के टुकड़े खोज रहा था।' 
जितेन्द्र गुप्ता 

Sunday, December 15, 2013

ईश्वर का चश्मा

शाम का अँधेरा घिर रहा था और मैं सदभावना ब्रिज पर खड़ा, गोमती नदी को बहता देख रहा था कि तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैंने चिंहुक कर उसकी तरफ देखा। वो एक अनजान बूढ़ा सा दिखने वाला शख्श था।
"क्या तुम इसे मेरे लिए पढ़ सकते हो बेटा?" उस अजनबी व्यक्ति ने मुझसे कहा। उसके हाथ में समाचार पत्र का एक टुकड़ा था।
"माफ़ कीजिये पर इसकी लिखावट बहुत महीन है और इतने अँधेरे में मैं इसे नहीं पढ़ पा रहा।" मैंने उस व्यक्ति से अपनी असमर्थता जाहिर की।
"कोई बात नहीं। मैंने इसे खुद पढ़ने कि कोशिश की थी पर अपना चश्मा घर भूल आने की वजह से मुझे पढ़ने में तकलीफ़ हो रही है ।" उस अजनबी ने कहा और फिर वो भी मेरी तरह नदी की तरफ मुंह करके खड़ा हो गया। 
कुछ देर चुप रहने के बाद उस अजनबी ने कहा, "क्या तुम्हे पता है कि आँखे कमजोर होने कि बीमारी केवल इंसानों में ही नहीं है बल्कि इस बीमारी से ईश्वर भी ग्रसित है।"
"हां, शायद ईश्वर भी अब आपकी तरह बूढ़ा हो चला है इसलिए उसकी भी नज़र कमजोर हो गयी होगी?" मैंने मजाक करने की कोशिश की पर वो शख्श गम्भीर था।
"नहीं, बुढ़ापे कि वजह से नहीं बल्कि ईश्वर खुद चाहता है कि उसकी नज़रे हमेशा कमजोर ही रहे इसलिए उसने खुद को कमजोर नज़रो कि बीमारी से ग्रस्त कर रखा है।" उस अजनबी ने कहा।
"भला कोई अपनी नज़रे खुद से क्यों कमजोर करना चाहेगा?" मैंने उसकी बात पर सवाल किया।
"क्यों कि इस तरह से वो हमेशा ये बहाना बना सकता है कि उसकी नज़रें कमजोर हो जाने कि वजह से आज दुनिया में अपराध और भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गए है। और वो इस दुनिया की पहले कि तरह देखभाल नहीं कर पा रहा।" उस बूढ़े व्यक्ति ने कहा।
"चलिए मान लेते है कि ईश्वर, कमजोर दृष्टि का बहाना बना कर अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को माफ़ कर देता है पर उनका क्या जो आज के इस घोर कलयुग में भी सच्चाई और ईमानदारी कि मशाल जलाये हुए है? क्या यह उनके साथ अन्याय नहीं कि ईश्वर कि कमजोर दृष्टि इन भले लोगों पर भारी पड़ रही है और ईश्वर उन्हें भी नज़रअंदाज़ कर दे रहा है?" मैंने उस अजनबी से प्रतिवाद किया। "क्या ईश्वर को नहीं लगता कि उसे अपनी नज़रे ठीक रखनी चाहिए और इन भले और ईमानदार लोगों की, भ्रष्ट और बेईमान लोंगो से सुरक्षा करनी चाहिए?"
वह अजनबी कुछ देर खामोश रहा फिर उसने कहा, "बेशक! ईश्वर कि नज़रें कमजोर हो चली है पर उसकी कृपा दृष्टि आज भी भले और ईमानदार लोगो पर बनी हुयी है।"
"कैसे?" मैंने पुनः पूछा।
"क्योंकि ईश्वर अपना चश्मा हम इंसानों कि तरह घर पर नहीं भूल जाता बल्कि चश्मा पहन कर वो उन भले और ईमानदार लोगो कि भी सुरक्षा करता रहता है।" उस अजनबी ने कहा और वापस नदी कि तरफ देखने लगा

जितेन्द्र गुप्ता 

Monday, December 2, 2013

“मिड डे मील”

प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य दोपहर के वक़्त स्कूल में बनने वाले मिड डे मील की गुणवत्ता को लेकर कई दिनों से परेशान थे. हाल ही में बिहार के परिषदीय विद्यालयों में हुयी घटनाओं ने उनकी परेशानी को और उभार दिया था. उन्होंने कई बार गाँव के प्रधान से इसकी शिकायत की, की ‘दुकानदार ख़राब स्तर की खाद्य सामग्री (राशन) विद्यालय को भेजता है’, पर बात नहीं बनी. सामने तो ग्राम प्रधान भी प्रधानाचार्य की बात में अपना सुर मिला देते थे, ‘बच्चों को मध्याह्न भोजन के रूप में उच्च गुणवत्ता का भोज्य पदार्थ मिलना उनका हक है, और इसके लिए हमसे जो कुछ भी बन पड़ेगा हम करेंगे.’ पर शायद ग्राम प्रधान भी, प्रधानाचार्य की पीठ पीछे दुकानदार से मिले हुए थे और प्रधानाचार्य की लाख शिकायत के बावजूद कही कुछ नहीं सुधर रहा था.
ऐसे ही चल रहा था की एक दिन प्रधानाचार्य को इच्छा हुयी की बच्चों को आज मेनू से अलग खीर बना कर खिलाई जाय. व्यवस्था होने लगी. सभी सामग्री इकठ्ठा की गयी. पर खीर के लिए ‘मेवे’ भी चाहिए थे. सो दुकानदार से मेवे भी भिजवाने को कहा गया.
रोज के ‘मेनू’ से अलग, आज मेवे की मांग देखकर, पहले तो दुकानदार सकपकाया, किन्तु फिर उसने मेवे दे दिए. उसके दिए हुए ख़राब मेवों को देखकर प्रधानाचार्य से ना रहा गया. वो उसी सामग्री को लेकर दुकानदार के पास पहुंचे और शिकायत भरे लहजे में कहा, “क्या भाई! तुम्हारी दुकान में जो भी ख़राब सामग्री होती है वो तुम विद्यालय में भिजवा देते हो. पैसे तो तुम्हे पूरे मिलते है, फिर सामान ख़राब गुणवत्ता का क्यों?”
दुकानदार से यह शिकायत सुनी नहीं गयी, उसने कहा, “मास्टर साहब! हमारी दुकान में यही है और ग्राम प्रधान का यही आदेश भी है की ऐसी सामग्री ही विद्यालय में भिजवाई जाय.”
प्रधानाचार्य ने कहा, “पर क्या तुम्हे दिख नहीं रहा की इन मेवों में घुन लग गया है. भला इसे कोई कैसे खा सकता है.”
दुकानदार ने तुरंत ही जवाब दिया, “मास्टर साहब! आप क्यों परेशान होते हो? ये मेवे मैंने आपको या आपके घर के बच्चों को खाने के लिए थोड़े ही दिए है? ये तो आपके विद्यालय के बच्चों को खाने के लिए है.” इतना कहकर दुकानदार अपने काम में व्यस्त हो गया.
प्रधानाचार्य निरुत्तर हो चुके थे. उन्होंने सोचा, ‘सच में, ये मेरे खाने के लिए नहीं, ये तो बच्चों के खाने के लिए है!’ और वो उसी मेवों के साथ विद्यालय वापस आ गए. दुकानदार ने उन्हें मिड डे मील के मायने समझा दिए थे.

जितेन्द्र गुप्ता   

“बचपन का दोस्त”

उस दिन जब मैंने उसे देखा, तो एकाएक पहचान नहीं सका. वह अपनी ट्राली को खींचता हुआ सड़क पर नंगे पाँव ही चला जा रहा था. मैं अपने काम पर जाने वाले रास्ते पर था. हम दोनों की नज़रें कुछ देर तक एक-दुसरे से उलझी रही, पर समयाभाव की वजह से न मैंने रुकना मुनासिब समझा और न उसने रुकने की जहमत उठाई.
पर मैं उसको पहचानता तो था क्यूँ की यह बात मुझे आधे घंटे बाद याद आयी थी. “मनमोहन”, हाँ! यही तो नाम था उसका. जब मैं और वो छोटे थे, हम एक ही स्कूल में पढ़ते थे. लेकिन जहाँ मैं छोटा होने की वजह से छोटा था, वहीँ वो असामान्य रूप से छोटा था. दुसरे शब्दों में ‘बौना’ था. यहाँ तक की उस समय भी वो मेरी लम्बाई का आधा था पर उसके चेहरे पर, हमारे चेहरों की अपेक्षा, हमेशा दुगनी मुस्कान खिली रहती थी. हालाँकि कक्षा के कई लड़के उसको हमेशा चिढाते और उसका मजाक उड़ाते. हम दोनों की शारीरिक लम्बाई में असमानता, कभी हमारी मित्रता में आड़े नहीं आयी. हम दोनों साथ ही स्कूल जाते. वो स्कूल जाने के आधे रास्ते पर मेरा इंतजार करता, फिर स्कूल में साथ में खाना खाते और साथ ही घर वापस आते. आधे रास्ते पर उसका-हमारा क़स्बा अलग हो जाया करता था. कुछ सालों तक वो हमारे साथ पढ़ा, फिर उसका स्कूल आना बंद हो गया.
स्कूल के दिनों में, गर्मी की दो महीनो की छुट्टी के दौरान, कौन हमसे अलग होता था, इसकी जानकारी हमें अक्सर ना हो पाती. बालमन इतना हिसाब-किताब न रख पाता. लेकिन कुछ दिनों बाद हमें पता चला था की मनमोहन के पिता जी, मनमोहन को किसी सर्कस कम्पनी को बेचने जा रहे थे. यह बात जितनी आश्चर्यजनक थी, उतनी ही सच भी थी. सर्कस में हमें बौनों का जोकर बनते देखना बहुत पसंद आता था, पर इस तस्वीर का दूसरा पहलु ये था, की उस फेहरिस्त में मेरा दोस्त मनमोहन भी शामिल होने जा रहा था.
एक बाप का दिल पत्थर हो सकता है, तभी शायद उसके पिता जी उसे बेचने के बारे में सोच रहे थे. पर एक माँ का दिल तो माँ का ही होता है वो अपनी संतान से कभी अलग नहीं हो सकती. भले ही उसकी संतान सामान्य हो या असामान्य. उसकी पिताजी की इच्छाओं पर उसकी माँ ने पानी फेर दिया था, और मनमोहन को बेचने का ख्याल उसके पिता जी को त्यागना पड़ा था.

उसके बाद मैंने मनमोहन को फिर कभी स्कूल में नहीं देखा. मैं अपनी पढाई के उद्देश्य से लगातार घर से बाहर ही रहा, और काफी दिनों बाद अब मेरी नौकरी गाँव के पास लग गयी थी. पर आज उसे ट्राली खींचते हुए देखकर सहसा ये यकीन करना कठिन हो गया था, की मनमोहन आज भी उतना ही लम्बा था जितना वो बीस साल पहले था. फर्क सिर्फ इतना था की उसकी उम्र अब सात के बजाय सताइस हो गयी थी.  

जितेन्द्र गुप्ता 

Sunday, October 20, 2013

'प्रेरणा'

‘सर’ कक्षा में विद्यार्थिओं को ‘प्रेरणा’ विषय पर व्याख्यान दे रहे थे और विद्यार्थिओं में ही उनका एक विद्यार्थी, ‘ईश्वर’, यह व्याख्यान बड़े ध्यान से सुन रहा था.
“बच्चों! हमें हर एक चीज, हर एक जीव और हर जंतु से प्रेरणा मिलती है. यहाँ तक की रास्ते पर पड़ा एक निर्जीव पत्थर भी हमें कुछ न कुछ प्रेरणा अवश्य देता है. लेकिन यह पूरी तरह हमारे ऊपर है की हम उससे क्या प्रेरणा या सीख ग्रहण करते है. प्रेरणा जैसी यह बहुमूल्य चीज जो हमें इतनी बहुतायत से मिलती है, हम इसकी कदर बिल्कुल भी नहीं करते. जब की इस जीवन में हमें कुछ कर गुजरने के लिए केवल एक प्रेरणा की जरुरत होती है.”
ईश्वर, पूरी कक्षा के दौरान ‘सर’ की बात ध्यानपूर्वक सुनता रहा. इधर कई दिनों से वो बहुत दुविधा में था और अपने भविष्य को लेकर काफी चिंतित था. स्नातक की पढाई तो वो कर रहा था लेकिन आगे क्या करना है? जीवन में क्या बनना है? यह उसे समझ में नहीं आ रहा था.
उस दिन सारा वक़्त जागते हुए, और रात में बिस्तर पर लेटे हुए, ईश्वर सर की ही बात को सोचता रहा. “क्या उसे भी कहीं से प्रेरणा मिलेगी की उसे जीवन में क्या करना है, क्या बनना है?” ताकि सब लोग उस पर नाज़ कर सकें. और यही सोचते हुए उसे नींद आ गयी. सुबह जल्दी उठकर, अपनी  आदत के अनुसार, वो पास के ही कॉलेज में बने स्टेडियम में ‘सुबह की दौड़’ लगाने चला गया. कॉलेज के मैदान पर ईश्वर ने रोज की तरह दौड़ लगायी. एक, दो, तीन..... और जब तक वो थक नहीं गया. फिर स्टेडियम के किनारे बने सीढियों के पास, व्यायाम करने चला गया.
Inspiration
वहां और भी लोग थे पर सब अपने में मशगूल थे. किसी को किसी की परवाह नहीं थी. ईश्वर और दिनों की अपेक्षा आज कुछ ज्यादा दौड़ा था, पर किसी ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया. ईश्वर अपना व्यायाम करने में व्यस्त हो चुका था, की तभी उसके बगल में कुछ दुरी पर बैठा एक लड़का चिल्ला पड़ा- “जय हिन्द सर!” ईश्वर को कुछ अटपटा सा लगा. उसने उस लड़के की तरफ देखा, फिर मैदान की तरफ देखा. वो लड़का मैदान पर दौड़ रहे किसी शख्श के लिए चिल्लाया था, जिसने उस लड़के की तरफ ध्यान नहीं दिया था. ईश्वर भी, फिर से, अपना व्यायाम करने में व्यस्त हो गया. वो लड़का जो चिल्लाया था, अपने एक दोस्त से बातें कर रहा था. और ईश्वर के पास उनकी आवाजें आ रही थी.
“देख रहे हो, कितनी छोटी उम्र के है और पैर से कुछ विकलांग भी है, पर फिर भी पांच-छह लोंगो को दौड़ में पीछे छोड़ दिया.” वो लड़का अपने दोस्त से कह रहा था.
“लेकिन वो है कौन?” दुसरे लड़के ने पूछा.
“अरे तुम उनको नहीं जानते? वो इस जिले के ‘डी.एम.’ है. आज अपनी पढाई के बल पर इस मुकाम पर पहुंचे है.” उस लड़के ने कहा.
ईश्वर ये बातें सुन रहा था, और उत्सुकतावश वो भी व्यायाम करना छोड़कर ‘डी.एम.’ साहब की तरफ देखने लगा. “वो बिलकुल हमारे जैसे ही तो है बल्कि एक पैर से थोड़े विकलांग ही है. फिर भी आज उस मुकाम पर है जहाँ पहुँचने का लाखो लोग सपना देखते है.” ईश्वर सोचने लगा. “पर मेरे पास तो सब कुछ है, पढाई में होशियारी, पढने के लिए समय और घर-परिवार का सहारा, सब-कुछ.” ईश्वर ‘डी.एम.’ साहब की तरफ देखता रहा, पर उसके मन में एक उधेड़बुन चलनी शुरू हो गयी थी.
‘डी.एम.’ साहब ने अपनी दौड़ पूरी कर ली थी और वो लोग जो शरीर से सही-सलामत थे, डी.एम. साहब को पीछे नहीं कर पाए थे. मैदान के किनारे बैठे लोंगो ने डी.एम. साहब के लिए तालियाँ बजानी शुरू कर दी थी. जैसे की लोग ओलंपिक दौड़ में ‘उसैन बोल्ट’ के लिए तालियाँ बजा रहे हो.
“उनके दौड़ने में ऐसी क्या खास बात है जो मेरे दौड़ने में नहीं थी? दौड़ा तो मैं भी था?” ईश्वर सोचे जा रहा था की उसे अहसास हुआ की लोग तालियाँ क्यों बजा रहे थे? “आज वो जिस मुकाम पर है, अपने-आप में एक हस्ती है. लोग उनकी दौड़ के लिए तालियाँ नहीं बजा रहे थे, बल्कि लोग उनकी हस्ती को सलाम कर रहे थे.”
“एक दिन मेरे लिए भी, लोग ऐसे ही तालियां बजायेंगे.” ईश्वर ने अनायास ही सोचा. और उसे यह महसूस हुआ की उसे उसकी ‘प्रेरणा’ मिल चुकी थी, की ‘उसे इस जिंदगी में क्या करना है? क्या बनना है?’ ईश्वर अपना व्यायाम पूरा कर चुका था और उसने घर की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए.......

जितेन्द्र गुप्ता

Wednesday, September 11, 2013

‘ईश्वर को पत्र'

प्रिय ईश्वर;

समझ में नहीं आता की तुम्हे किस नाम से बुलाऊ; क्यों कि अगर मैं तुम्हे भगवान कहता हूँ तो लोग मुझे हिन्दू समझेंगे; अल्लाह कहूँ तो मुसलमान; वाहे गुरु कहूँ तो सिख; और अगर मैं तुम्हे गॉड कहता हूँ तो मुझे ईसाइ समझा जायेगा. अजीब बात है न क्यों कि ये सारे नाम तुम्हारे हैं, मैं तुम्हे किसी भी नाम से बुलाऊ; याद तो तुम्हे ही करूँगा. पर मैं तुम्हे जिन नामों से बुलाऊंगा, मेरी वैसी ही पहचान बन जाएगी. खैर; मैं तुम्हे यहाँ ईश्वर के नाम से बुलाऊंगा; आशा है कि तुम मेरी बात समझ जाओगे.
तुम्हे याद होगा, करोड़ों साल पहले, जब तुमने यह सृष्टी और यह धरती बनायीं थी तो तुमने अन्य वस्तुओं के साथ इंसानों की भी रचना की थी. शायद यह सोचकर की इंसान धरती पर दुसरे इंसानों से प्रेम करेगा और अपना जीवन जीने के लिए वस्तुओं का इस्तेमाल करेगा. लेकिन शायद मुझे यह बताने की जरुरत नहीं है की इंसानों ने तुम्हारी बनायीं इस दुनिया का क्या हाल कर रखा है? आज एक इंसान दुसरे इंसान का अपने मतलब के लिए इस्तेमाल कर रहा है और वस्तुओं से प्रेम कर रहा है. कही ऐसा तो नहीं कि तुम हमें बनाकर भूल गए हो, और  इन मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों या चर्चों में कही गहरी नींद में सो रहे हो?
Image Courtesy: Vinayak Gupta
मैंने कई बार सोचा की तुम्हे एक पत्र लिखूं, और इस धरती के हालात से वाकिफ कराऊँ, पर मुझे तुम्हारा पता ही नहीं मालूम था. और जब मैंने कई संतों, मौलवियों और पादरियों से तुम्हारा पता पूछा तो उन्होंने मुझे बताया कि तुम मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों में रहते हो. मैंने कई पत्र लिखे और मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों को पोस्ट भी किये पर मुझे कभी कोई उत्तर नहीं मिला. इससे मैंने यह अंदाज़ा लगाया की तुम इन जगहों पर रहते ही नहीं होगे, वरना तुम मेरे पत्रों के जवाब अवश्य देते. मेरी खोज जारी थी की इसी बीच मुझे मेरे बचपन की एक बात याद आयी, जो की मेरे गुरूजी अक्सर कहा करते थे. ‘हर जीव के अन्दर ईश्वर का निवास होता है.’ और तब जाकर मुझे मेरी गलती का अहसास हुआ की मैंने तुम्हे गलत जगहों पर ढूढने की कोशिश की थी. तुम तो मेरे अन्दर ही विद्यमान हो, और मेरे ही अन्दर क्यों, जितने जीव-जंतु इस धरती पर है सब के अन्दर, यानि तुम हर इंसान के अन्दर रहते हो. पर मेरी ही तरह आजकल के ये इंसान, यह बात भूल गए है. वो अभी भी तुम्हे मंदिरों, मस्जिदों और चर्चों में ढूंढने जाते है. कभी-कभी तो वो तुमको लेकर इतने भावुक हो जाते है की तुम्हारे नाम पर दंगा-फसाद भी करते है. कोई इसको ‘धर्म-युद्ध’ कहता है तो कोई ‘जिहाद’. मुझे समझ में नहीं आ रहा की लोंगो को, खुद के नाम पर लड़ता हुआ देखकर भी, तुम चुप कैसे हो?
तुम्हे जानकार आश्चर्य होगा की एक इंसान, धर्म के नाम पर, दुसरे इंसान की हत्या कर देता है. जहाँ तक मुझे मालूम है की तुमने ‘धर्म’ जैसी कोई चीज नहीं बनायीं थी. यह तो पूरी तरह इंसानी दिमाग की उपज थी. आज भी दुनिया में कई पुस्तकें है, जिन्हें लोग धार्मिक पुस्तकें कहते है, जैसे वेद-पुराण, गीता, कुरान और बाइबिल इत्यादि. लोंगो का कहना है की ये किताबें तुमने लिखी है. क्या वास्तव में ऐसा है? और अगर ऐसा है तो इतनी अलग-अलग किताबें लिखने के बजाय तुमने केवल एक किताब ही क्यों नहीं लिखी जिसे हर इंसान पढ सकता? अलग-अलग किताबें पढने से लोंगो को अलग-अलग विचार आते है, और उनमे उंच-नीच का भाव पैदा होता है. शायद तुम्हे पता नहीं की लोग इन किताबों पर भी झगडा कर लेते है, और मरने-मारने पर उतारू हो जाते है. कोई कहता है की ‘गीता’ महान है तो कोई ‘कुरान’ को महान बता है, कोई बाइबिल को महान बताता है तो कोई ‘गुरुग्रंथ साहिब’ को महान बताने की कोशिश करता है.
प्रिय ईश्वर; मुझे पता है की तुम यह सब देख रहे होगे, और अगर तुम कहीं हो तो तुरंत इस धरती पर आ जाओ, क्यों की परिस्थिति बहुत बिगड़ चुकी है. अगर तुम नहीं आओगे तो तुम्हारी बनायीं इस दुनिया को, तुम्हारी बनायीं सर्वश्रेष्ठ कृति ‘इंसान’ ही नष्ट कर डालेगी. मुझे पता है की तुम बहुत व्यस्त हो पर अपनी बनायीं इस दुनिया के लिए तुम कुछ वक़्त तो निकाल ही सकते हो. तुम्हारे आने का शायद यही सही वक़्त है......
तुम्हारा
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'देशप्रेम'

Published in Veethika on 08/09/2013

कुछ पंक्तियाँ...

Dedicated to 'Amma'

Kasak

Thursday, September 5, 2013

'कातिल'

वो एक नन्हा सा कीड़ा था,
जिसे अभी मैंने मसल दिया.
सोचता हूँ, कि "क्या इसका भी-
भविष्य उसी ईश्वर ने लिखा था."

यह एक संयोग था, या 
पूर्व निश्चित था कि,
उसे मेरे हाथों मरना है?
और मैं एक कातिल हूँ.

क्या ईश्वर इतना खाली है, कि-
"हर जीव का भाग्य लिखता है?"
या यह सिर्फ मेरा वहम है,
और ईश्वर कही नहीं है.

पता नहीं की, वो है या नहीं है?
और भाग्य लिखता भी है या नहीं?
पर ये सच है की मैंने उसे मारा है,
और मैं कुछ और को ढूंढ रहा हूँ.

जितेन्द्र गुप्ता 

Monday, August 19, 2013

"उनकी फितरत, मेरी आदत"

सोचता हूँ की सोचने से क्या होगा?
लेकिन फिर भी कुछ देर सोचता हूँ.
मेरी ख़ामोशी के क्या निहितार्थ है?
यह उन्हें कौन और कैसे बता देता है?

जब उनकी नज़रें मुझसे उलझती है,
मैं कुछ नहीं कहता, बस उन्हें पढता हूँ.
बिना ये जाने, बिना ये समझे कि-
नयनों की भाषा मुझे समझ नहीं आती.

मैं कुछ-कुछ अनुमान लगाता हूँ, 
शायद, वो मुझसे बेहद नाराज़ है.
पर हम दोनों गुमसुम ही रह जाते है,
कोई किसी से कुछ नहीं कहता.

अगर नाराज़ होना उनकी फितरत है,
तो खामोश रहना मेरी आदत.
मैं खुद को बदल नहीं पाता,
और वो मुझे बर्दाश्त नहीं कर पाते.

शायद यही वजह है, की हम अलग है.
हमारी मंजिलें अलग है, और रास्ते भी अलग.
और हम साथ बस उसी दोराहे तक थे,
जहाँ से हम हुए थे, एक-दुसरे से अलग.

जितेन्द्र गुप्ता
Image Courtesy: Vinayak Gupta

Sunday, August 18, 2013

"अधर्म की परिभाषा"


लोग कहते है की मेरा धर्म हिन्दू है,
क्यों कि मेरी पैदाइश हिन्दू थी, और 
मेरे माता-पिता हिन्दू थे, और इसलिए-
हमें हिन्दू ईश्वर को पूजना चाहिए.

पर मैं तो कभी मंदिर जाता नहीं,
किसी भी ईश्वर के सामने कभी,
अपना शीश झुकाता नहीं.
फिर मैं हिन्दू कैसे हुआ?

क्या सिर्फ हिन्दू परिवार में पैदा-
होने से मेरा धर्म हिन्दू हो गया?  
क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं-
की मैं अपना धर्म खुद चुन सकूँ?

और ये भी की क्या धर्म हमारे-
जीवन में इतना ही जरुरी है कि-
बिना धर्म का आवरण ओढ़े,
इस दुनिया में हम जी भी नहीं सकते?

आखिर धर्म की जरुरत ही किसे है?
शायद उन्हें जो बुरा काम करते है?
पर मैंने तो कभी कुछ बुरा किया नहीं,
इसलिए मुझे धर्म की जरुरत भी नहीं.

इस धरती पर पहले इंसान आया,
फिर इंसान ने अनेक धर्मों को बनाया.
यानि धर्मों का जन्मदाता इंसान है,
न की इंसानों के जन्मदाता ये सभी धर्म.

प्रकृति हमें जीवन देती है,
हवा और पानी देती है. और ये सब
देने से पहले वो ये नहीं देखती,
की हमारा धर्म क्या है?

क्या हमने कभी सुना है, की ईश्वर ने,
पानी सिर्फ हिन्दुओं के लिए बनाया है?
या अल्लाह का ये हुक्म है की केवल,
मुस्लिम ही इस हवा में सांस ले सकते है?

ये सभी धर्म क्या केवल ये नहीं बताते,
की तुम्हारी टोपी मेरी वाली से ख़राब है?
चाहो तो आकर मुझसे लड़ लो और देख लो!  
क्या ये धर्म हमें लड़ाने के हथियार नहीं है?

क्या हम सबका केवल एक ही धर्म नहीं- 
हो सकता की हम सभी अधर्मी हो जाएँ?
विश्व का सबसे महान धर्म जो कहता है-
कि हम क्यों किसी के आगे शीश झुकाएं?

हम क्यों खुद को किसी बंधन में बांधे?
जब हम मुक्त होकर जी सकते है?
हम क्यों खुद को हिन्दू या मुसलमान कहे,
जब हम केवल इंसान बन कर जी सकते है?

जितेन्द्र गुप्ता

Saturday, August 17, 2013

कुछ तुम्हारे बारे में....

मैं नहीं चाहता की, मैं कुछ कहूँ,
तुम्हारे बारे में, जो तुम्हे बुरा लगे.

यहाँ तक की मैं सोचना भी नहीं चाहता,
कुछ भी तुम्हारे बारे में, जो मुझे बुरा लगे.

कोशिश करता हूँ खुश रहने की,खुद में-
ही व्यस्त रहने की, जिससे मुझे अच्छा लगे.

पर सारी कोशिशे और मेरे सारे प्रयास, दूर अनंत-
में कहीं गुम हो जाते है, जैसे किसी को पता न चले.

क्या तुम फिर से वैसे नहीं बन सकते?
जैसे पहले थे, हंसते हुए और मुस्कराते हुए.

क्या तुम्हे किसी ने कहा है की मुझसे-
बातें न करो, शायद मुझको बुरा बताते हुए?

मैंने कोशिश की थी, पहले भी और आज भी,
तुम्हे हँसाने की, खुद झूठे ही मुस्कराते हुए.

और एक पल को लगा था, की तुम मान गए हो.
देखा था तुम्हे मुस्कराते हुए, पर नज़रें मुझसे चुराते हुए.

पर तुम फिर वैसे ही बन जाओगे, जैसे पहले थे,
यह मैंने नहीं सोचा था, न सोते हुए न जागते हुए.

तुमको मनाने के लिए, जिन रास्तों पर मैं चला था,
अब आगे वे बंद हो गए है, भ्रमित मुझे बनाते हुए.

मैं क्या करूँ? किस रास्ते पर चलूँ?
दुविधा खड़ी है मेरे समक्ष, मुंह फैलाये हुए.

खैर! मैं अब कभी भी, तुमसे कुछ न कहूँगा.
तुम्हे जो अच्छा लगे वो करो, बस खुश रहो, खिलखिलाते हुए.....

जितेन्द्र गुप्ता
Image Courtesy: Vinayak Gupta

Friday, August 16, 2013

पंछी और आकाश..

सुबह देखा था-
पंछियों को कही जाते हुए.
उड़ते हुए, एक साथ-
पंख हिलाते हुए.
और आकाश के-
नीले पृष्ठभूमि पर,
अनजानी-अनायास,
आकृतियाँ बनाते हुए.

और फिर शाम में
भी इन्हें देखा था.
वैसे ही उड़ते हुए,
पंखो को हिलाते हुए.
उसी आकाश के, लेकिन-
धुंधले पृष्ठभूमि पर,
वैसी ही अनोखी
संरचनाएँ बनाते हुए.

वो शायद पंछी नहीं थे,
हम जैसी आत्माएं थी.
जो आई थी इस धरा पर,
हंसते हुए, मुस्कराते हुए.
और एक दिन ये भी चली जाएँगी,
उन्ही पंछियों की तरह.
जिंदगी की शाम में
ढलते हुए, दम तोड़ते हुए.

जितेन्द्र गुप्ता


Monday, August 5, 2013

"दृष्टिकोण"

एक बार, एक धनवान परिवार का एक पिता, अपने बच्चे को कुछ दिन के लिए गाँव ले गया. वह अपने बच्चे को यह दिखाना चाहता था की गरीब लोग किस तरह अपना जीवन गुजर-बसर करते है.
गाँव में कुछ दिन और रात, उन लोंगो ने एक बहुत ही गरीब परिवार की झोपड़ी में बिताया.
जब वे लौटने लगे, तो रास्ते में पिता ने अपने बच्चे से पूछा, "गाँव में तुम्हारे दिन कैसे बीते?"
"बहुत ही शानदार!" बच्चा ख़ुशी से बोला.
"क्या तुमने यह देखा की गरीब लोग कैसे रहते है?" पिता ने उत्सुकता से पूछा.
"हाँ पिता जी!" बच्चे ने कहा.
"तो मुझे कुछ बताओ की तुमने क्या देखा?" पिता ने कहा.
बच्चे ने कहा, "पिता जी! मैंने देखा की हमारे पास हमारे घर में एक ही कुत्ता है, जब की उनके पास चार है. शहर में हमारे घर में बगीचे के बीच में एक ही तालाब है, जब की इनके पास पूरी की पूरी नदी है जिसका कोई अंत नहीं है. रात को हम अपने घर को बिजली के बल्बों से रोशन करते है, जब की इनके घर को रोशन करने के लिए हजारों सितारे रातभर जगमगाते है. हमारे घर की सीमा घर के सामने की चारदीवारी पर ख़त्म हो जाती है, जबकि इनके पास पूरा का पूरा क्षितिज है."
बच्चा कहता जा रहा था, "हमारे पास तो शहर में जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा है जिस पर हमारा घर बना है, जब की उनके पास उनके खेत है जो हमारी नज़रों की सीमा से भी परे है. पिता जी! और क्या कहूँ की हम खुद अपना काम करने में खुद को अक्षम पाते है, इसीलए हमारे घर पर नौकर रखे गए है, जो हमारी सेवा करते है, जब की ये लोग खुद अपना काम तो करते ही है, दूसरों की सेवा भी करते है. हमें हमारे भोजन के लिए अन्न खरीदना पड़ता है, जब की ये अपने खेतों में अन्न उगाते है."
बच्चे का पिता निःशब्द हो चुका  था.
और अंततः बच्चे ने कहा, "पिता जी मैं आपको धन्यवाद् कहना चाहूँगा!"
पिता ने पूछा, "वो किसलिए मेरे बच्चे?" 
"यही की आपने हमें यह देखने और महसूस करने का मौका दिया की हम कितने गरीब है?" बच्चे ने कहा और चुप हो गया.
सौजन्य से: http://inspiringshortstories.org/how-poor-we-are/
अनुवाद: जितेन्द्र गुप्ता 


Sunday, July 14, 2013

Great Book about Jaunpur

While searching on the internet, I came to know about a book written on "Jaunpur" by a famous historian A.L. Basham.
Arthur Llewellyn Basham was an Indologist and a professor at London’s School of Oriental and African Studies.Basham wrote many books on India, including A Cultural History of India and The Sharqi Sultanate Of Jaunpur. He also co-authored The Origins and Development of Classical Hinduism, Religious Beliefs and Practices of North India During the Early Medieval Period, and History and Doctrines of the Ajivikas:A Vanished Indian Religion. But his most popular work is the book The Wonder That Was India.


For More information about this book:

Sunday, June 30, 2013

"अम्मा"

मोह ममता माया में 
लिपटी एक "आत्मा"।
और कोई नहीं, वो 
है मेरी "अम्मा" ।

मेरी सोच, मेरा-
-व्यक्तित्व, उसकी छाया।
मेरा हर एक दुःख,
उसने अपनाया।

एक सच्ची मार्गदर्शक,
एक महान व्यक्तित्व।
मेरे लिए मेरे जीवन
का आदर्श चरित्र । 
जितेन्द्र गुप्ता
This poem I have written over my grandmother, whom I call "Amma".