Monday, December 16, 2013

एक छोटा लड़का जो सोना खोज रहा था.…

सुबह-सुबह घूमने के लिए निकला ही था कि पाँव अचानक शाही पुल कि तरफ मुड़ गए। सामने गली थी जो थोड़ी ढलान पर थी और सीधे गोमती नदी की तरफ जाती थी। गली के किनारे हर तरफ मकान बने हुए थे और दोनों तरफ नाली बह रही थी। उसी नाली के बगल में एक छोटा सा लड़का भी बैठा हुआ था जो नाली में बह रहे गंदे पानी को अपनी बाल्टी में इकठ्ठा कर रहा था। नाली से सड़ी हुयी बदबू और अमोनिया कि गंध भी आ रही थी पर वो लड़का इन बातों से अनजान अपने काम में तल्लीन था। 
"छोटू! ये तुम क्या कर रहे हो?" मैंने उस लड़के से उत्सुकतावश पूछा। उस लड़के ने मुझे क्षण भर के लिए देखा फिर अपने काम में दुबारा जुट गया। मैंने उससे दुबारा पूछने कि कोशिश की, "इतनी सुबह तुम नाली क्यों साफ कर रहे हो?"
"मैं नाली नहीं साफ कर रहा हूँ।" इस बार उस लड़के ने जवाब दिया, "मैं इस नाली के पानी में सोने-चाँदी के छोटे टुकड़ों को खोज रहा हूँ।"
नाली में सोने-चाँदी के टुकड़े खोजना अजीब बात थी, फिर भी मैंने उससे आगे पूछा, "भला इस  गन्दी नाली में तुम्हे सोने-चाँदी के टुकड़े कैसे मिलेंगे?"
तो उसने कहा, "नाली का ये गन्दा पानी आस-पास बने स्वर्णकार वर्ग के लोगो के घरों से आता है, ये लोग अपने घरों में ही सोने-चाँदी के जेवरों कि कटाई, ढलाई और धुलाई करते है, और उनकी सफाई के दौरान अक्सर सोने-चाँदी के कुछ टुकड़े इसी नाली में बहते हुए आ जाते है। मैं उसे ही ढूंढ रहा हूँ।"
बात लगभग स्पष्ट हो गयी थी, पर इस तरह से वो दिन भर में कितने पैसे बना लेता होगा? जब मैंने उससे यह बात पूछी, तो उसने कहा, "३०० से ५०० रूपये के लगभग हर रोज। क्यों कि मैं दिन भर कि जमा पूंजी को उन्ही लोगो को वापस बेच देता हूँ, जिनके घरों से निकले गंदे पानी में मैं इसे खोज रहा हूँ।"
इसके बाद वो लड़का मुझसे बात करना बंद कर अपने काम में दुबारा उसी तल्लीनता से जुट गया। मैं उस लड़के को वही छोड़ अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया। 'वास्तव में हमारा कार्य हमारे दृष्टिकोण से परिभाषित होता है और यह इस पर निर्भर करता है कि हम अपने कार्य को किस रूप में देखते है।' मैंने सोचा, 'एक छोटा लड़का, जो कि नाली साफ़ कर रहा था, वास्तव में वो नाली न साफ़ करके उसके गंदे पानी में सोने-चाँदी के टुकड़े खोज रहा था।' 
जितेन्द्र गुप्ता 

Sunday, December 15, 2013

ईश्वर का चश्मा

शाम का अँधेरा घिर रहा था और मैं सदभावना ब्रिज पर खड़ा, गोमती नदी को बहता देख रहा था कि तभी किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैंने चिंहुक कर उसकी तरफ देखा। वो एक अनजान बूढ़ा सा दिखने वाला शख्श था।
"क्या तुम इसे मेरे लिए पढ़ सकते हो बेटा?" उस अजनबी व्यक्ति ने मुझसे कहा। उसके हाथ में समाचार पत्र का एक टुकड़ा था।
"माफ़ कीजिये पर इसकी लिखावट बहुत महीन है और इतने अँधेरे में मैं इसे नहीं पढ़ पा रहा।" मैंने उस व्यक्ति से अपनी असमर्थता जाहिर की।
"कोई बात नहीं। मैंने इसे खुद पढ़ने कि कोशिश की थी पर अपना चश्मा घर भूल आने की वजह से मुझे पढ़ने में तकलीफ़ हो रही है ।" उस अजनबी ने कहा और फिर वो भी मेरी तरह नदी की तरफ मुंह करके खड़ा हो गया। 
कुछ देर चुप रहने के बाद उस अजनबी ने कहा, "क्या तुम्हे पता है कि आँखे कमजोर होने कि बीमारी केवल इंसानों में ही नहीं है बल्कि इस बीमारी से ईश्वर भी ग्रसित है।"
"हां, शायद ईश्वर भी अब आपकी तरह बूढ़ा हो चला है इसलिए उसकी भी नज़र कमजोर हो गयी होगी?" मैंने मजाक करने की कोशिश की पर वो शख्श गम्भीर था।
"नहीं, बुढ़ापे कि वजह से नहीं बल्कि ईश्वर खुद चाहता है कि उसकी नज़रे हमेशा कमजोर ही रहे इसलिए उसने खुद को कमजोर नज़रो कि बीमारी से ग्रस्त कर रखा है।" उस अजनबी ने कहा।
"भला कोई अपनी नज़रे खुद से क्यों कमजोर करना चाहेगा?" मैंने उसकी बात पर सवाल किया।
"क्यों कि इस तरह से वो हमेशा ये बहाना बना सकता है कि उसकी नज़रें कमजोर हो जाने कि वजह से आज दुनिया में अपराध और भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गए है। और वो इस दुनिया की पहले कि तरह देखभाल नहीं कर पा रहा।" उस बूढ़े व्यक्ति ने कहा।
"चलिए मान लेते है कि ईश्वर, कमजोर दृष्टि का बहाना बना कर अपराधियों और भ्रष्टाचारियों को माफ़ कर देता है पर उनका क्या जो आज के इस घोर कलयुग में भी सच्चाई और ईमानदारी कि मशाल जलाये हुए है? क्या यह उनके साथ अन्याय नहीं कि ईश्वर कि कमजोर दृष्टि इन भले लोगों पर भारी पड़ रही है और ईश्वर उन्हें भी नज़रअंदाज़ कर दे रहा है?" मैंने उस अजनबी से प्रतिवाद किया। "क्या ईश्वर को नहीं लगता कि उसे अपनी नज़रे ठीक रखनी चाहिए और इन भले और ईमानदार लोगों की, भ्रष्ट और बेईमान लोंगो से सुरक्षा करनी चाहिए?"
वह अजनबी कुछ देर खामोश रहा फिर उसने कहा, "बेशक! ईश्वर कि नज़रें कमजोर हो चली है पर उसकी कृपा दृष्टि आज भी भले और ईमानदार लोगो पर बनी हुयी है।"
"कैसे?" मैंने पुनः पूछा।
"क्योंकि ईश्वर अपना चश्मा हम इंसानों कि तरह घर पर नहीं भूल जाता बल्कि चश्मा पहन कर वो उन भले और ईमानदार लोगो कि भी सुरक्षा करता रहता है।" उस अजनबी ने कहा और वापस नदी कि तरफ देखने लगा

जितेन्द्र गुप्ता 

Monday, December 2, 2013

“मिड डे मील”

प्राथमिक विद्यालय के प्रधानाचार्य दोपहर के वक़्त स्कूल में बनने वाले मिड डे मील की गुणवत्ता को लेकर कई दिनों से परेशान थे. हाल ही में बिहार के परिषदीय विद्यालयों में हुयी घटनाओं ने उनकी परेशानी को और उभार दिया था. उन्होंने कई बार गाँव के प्रधान से इसकी शिकायत की, की ‘दुकानदार ख़राब स्तर की खाद्य सामग्री (राशन) विद्यालय को भेजता है’, पर बात नहीं बनी. सामने तो ग्राम प्रधान भी प्रधानाचार्य की बात में अपना सुर मिला देते थे, ‘बच्चों को मध्याह्न भोजन के रूप में उच्च गुणवत्ता का भोज्य पदार्थ मिलना उनका हक है, और इसके लिए हमसे जो कुछ भी बन पड़ेगा हम करेंगे.’ पर शायद ग्राम प्रधान भी, प्रधानाचार्य की पीठ पीछे दुकानदार से मिले हुए थे और प्रधानाचार्य की लाख शिकायत के बावजूद कही कुछ नहीं सुधर रहा था.
ऐसे ही चल रहा था की एक दिन प्रधानाचार्य को इच्छा हुयी की बच्चों को आज मेनू से अलग खीर बना कर खिलाई जाय. व्यवस्था होने लगी. सभी सामग्री इकठ्ठा की गयी. पर खीर के लिए ‘मेवे’ भी चाहिए थे. सो दुकानदार से मेवे भी भिजवाने को कहा गया.
रोज के ‘मेनू’ से अलग, आज मेवे की मांग देखकर, पहले तो दुकानदार सकपकाया, किन्तु फिर उसने मेवे दे दिए. उसके दिए हुए ख़राब मेवों को देखकर प्रधानाचार्य से ना रहा गया. वो उसी सामग्री को लेकर दुकानदार के पास पहुंचे और शिकायत भरे लहजे में कहा, “क्या भाई! तुम्हारी दुकान में जो भी ख़राब सामग्री होती है वो तुम विद्यालय में भिजवा देते हो. पैसे तो तुम्हे पूरे मिलते है, फिर सामान ख़राब गुणवत्ता का क्यों?”
दुकानदार से यह शिकायत सुनी नहीं गयी, उसने कहा, “मास्टर साहब! हमारी दुकान में यही है और ग्राम प्रधान का यही आदेश भी है की ऐसी सामग्री ही विद्यालय में भिजवाई जाय.”
प्रधानाचार्य ने कहा, “पर क्या तुम्हे दिख नहीं रहा की इन मेवों में घुन लग गया है. भला इसे कोई कैसे खा सकता है.”
दुकानदार ने तुरंत ही जवाब दिया, “मास्टर साहब! आप क्यों परेशान होते हो? ये मेवे मैंने आपको या आपके घर के बच्चों को खाने के लिए थोड़े ही दिए है? ये तो आपके विद्यालय के बच्चों को खाने के लिए है.” इतना कहकर दुकानदार अपने काम में व्यस्त हो गया.
प्रधानाचार्य निरुत्तर हो चुके थे. उन्होंने सोचा, ‘सच में, ये मेरे खाने के लिए नहीं, ये तो बच्चों के खाने के लिए है!’ और वो उसी मेवों के साथ विद्यालय वापस आ गए. दुकानदार ने उन्हें मिड डे मील के मायने समझा दिए थे.

जितेन्द्र गुप्ता   

“बचपन का दोस्त”

उस दिन जब मैंने उसे देखा, तो एकाएक पहचान नहीं सका. वह अपनी ट्राली को खींचता हुआ सड़क पर नंगे पाँव ही चला जा रहा था. मैं अपने काम पर जाने वाले रास्ते पर था. हम दोनों की नज़रें कुछ देर तक एक-दुसरे से उलझी रही, पर समयाभाव की वजह से न मैंने रुकना मुनासिब समझा और न उसने रुकने की जहमत उठाई.
पर मैं उसको पहचानता तो था क्यूँ की यह बात मुझे आधे घंटे बाद याद आयी थी. “मनमोहन”, हाँ! यही तो नाम था उसका. जब मैं और वो छोटे थे, हम एक ही स्कूल में पढ़ते थे. लेकिन जहाँ मैं छोटा होने की वजह से छोटा था, वहीँ वो असामान्य रूप से छोटा था. दुसरे शब्दों में ‘बौना’ था. यहाँ तक की उस समय भी वो मेरी लम्बाई का आधा था पर उसके चेहरे पर, हमारे चेहरों की अपेक्षा, हमेशा दुगनी मुस्कान खिली रहती थी. हालाँकि कक्षा के कई लड़के उसको हमेशा चिढाते और उसका मजाक उड़ाते. हम दोनों की शारीरिक लम्बाई में असमानता, कभी हमारी मित्रता में आड़े नहीं आयी. हम दोनों साथ ही स्कूल जाते. वो स्कूल जाने के आधे रास्ते पर मेरा इंतजार करता, फिर स्कूल में साथ में खाना खाते और साथ ही घर वापस आते. आधे रास्ते पर उसका-हमारा क़स्बा अलग हो जाया करता था. कुछ सालों तक वो हमारे साथ पढ़ा, फिर उसका स्कूल आना बंद हो गया.
स्कूल के दिनों में, गर्मी की दो महीनो की छुट्टी के दौरान, कौन हमसे अलग होता था, इसकी जानकारी हमें अक्सर ना हो पाती. बालमन इतना हिसाब-किताब न रख पाता. लेकिन कुछ दिनों बाद हमें पता चला था की मनमोहन के पिता जी, मनमोहन को किसी सर्कस कम्पनी को बेचने जा रहे थे. यह बात जितनी आश्चर्यजनक थी, उतनी ही सच भी थी. सर्कस में हमें बौनों का जोकर बनते देखना बहुत पसंद आता था, पर इस तस्वीर का दूसरा पहलु ये था, की उस फेहरिस्त में मेरा दोस्त मनमोहन भी शामिल होने जा रहा था.
एक बाप का दिल पत्थर हो सकता है, तभी शायद उसके पिता जी उसे बेचने के बारे में सोच रहे थे. पर एक माँ का दिल तो माँ का ही होता है वो अपनी संतान से कभी अलग नहीं हो सकती. भले ही उसकी संतान सामान्य हो या असामान्य. उसकी पिताजी की इच्छाओं पर उसकी माँ ने पानी फेर दिया था, और मनमोहन को बेचने का ख्याल उसके पिता जी को त्यागना पड़ा था.

उसके बाद मैंने मनमोहन को फिर कभी स्कूल में नहीं देखा. मैं अपनी पढाई के उद्देश्य से लगातार घर से बाहर ही रहा, और काफी दिनों बाद अब मेरी नौकरी गाँव के पास लग गयी थी. पर आज उसे ट्राली खींचते हुए देखकर सहसा ये यकीन करना कठिन हो गया था, की मनमोहन आज भी उतना ही लम्बा था जितना वो बीस साल पहले था. फर्क सिर्फ इतना था की उसकी उम्र अब सात के बजाय सताइस हो गयी थी.  

जितेन्द्र गुप्ता