गर्मियों का सूरज, सिर पर चढ़ आता है,
वक़्त कटता नहीं, दिन चढ़ जाता है,
भीषड़ गर्मी और उमस झेली नहीं जाती,
दिन गुजरता है घर में, बाहर निकला नहीं जाता है.
पर वही सूरज शाम तक ढल जाता है,
लालिमा छोड़ क्षितिज पर, अस्त हो जाता है,
सूरज के साथ ही शाम भी ढल जाती है,
और उजले आकाश का मुंह काला कर जाती है.
मुंह पर लगी कालिख को धोने की प्रत्याशा,
आकाश के चेहरे पर रात में छलक आती है,
रात में सूरज भले ही उसका साथ छोड़ दे,
पर बुरे वक़्त में चन्द्रमा की ही बारी आती है.
कितनी अजीब बात होती है कि चन्द्रमा,
जो खुद सूरज की ही रोशनी से चमकता है,
गर्मी उसकी सोख कर, हमें श्वेत शीतलता देता है,
स्याह अँधेरी रातों का सच्चा हमसफ़र बनता है.
"जीतेन्द्र गुप्ता "
कितनी अजीब बात होती है कि चन्द्रमा,
ReplyDeleteजो खुद सूरज की ही रोशनी से चमकता है,
गर्मी उसकी सोख कर, हमें श्वेत शीतलता देता है,
स्याह अँधेरी रातों का सच्चा हमसफ़र बनता है.
Vicharniy..... Bahut Achcha likha hai....