कल रात अचानक नींद टूट गयी;
घडी देखा तो लगभग एक बज रहे थे;
कुछ देर तक लेटा रहा यूँ ही, सोचा-
नींद फिर से आयेगी, पर ऐसा नहीं हुआ.
अनंत आकाश मेरे सामने था;
और चाँद पूरे शबाब पर था.
थोड़े बहुत बादल भी छाए थे,
और ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी.
मैंने अपना बिस्तर छोड़ दिया,
और चल कर बालकनी तक पहुंचा.
देखा- दिन में भीड़ से भरी रहने वाली;
घर के सामने की सड़क, रात में वीरान पड़ी थी,
सन्नाटा इस कदर घुल गया था जैसे,
इस दुनिया में अब कोई न बचा हो.
बस एक मैं था, मुझसे कोई न छिपा हो,
और मुझे अपने वजूद का एहसास हो रहा था.
मैं काफी देर वही पर खड़ा रहा,
सोये हुए सन्नाटे में खोया रहा.
नींद मुझसे कोसों दूर थी,
पर रात तो अभी शुरू ही हुयी थी.
अनमने-पन से मैं बिस्तर को लौटा,तो देखा-
तुम्हारी यादों की गठरी मेरे सिरहाने पड़ी थी.
और कोई अनजानी सी चीज थी,
जो टूटकर पूरे बिस्तर पर बिखर गयी थी.
'ख्वाब ही रहा होगा, शायद', मैंने सोचा,
अँधेरे में उसके कुछ टुकडे चमक रहे थे.
मैंने खुद को जगाया, और उन टुकड़ों को,
समेट कर दुबारा जोड़ने की कोशिश की.
जब ख्वाब के
कुछ टुकडे जुड़ गए आपस में,
और तस्वीर का एक पहलु कुछ साफ़ हुआ,
तो देखा-एक तो "तुम" ही थे उस ख्वाब में मेरे,
पर मेरी ही उस चीज में 'मैं नहीं था'.
"जीतेन्द्र गुप्ता"
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