Sunday, September 16, 2012

तन्हा ख़ुशी..


हर रोज़, शाम को, जब मैं काम करके लौटता हूँ,
दिन भर की थकान के साथ, कमरे में अकेला होता हूँ.

दिन ढल रहा होता है और खिड़की से सड़क के उस पार-
खड़ा दिख रहा,अशोक का पेड़ भी शोक मना रहा होता है.

मेज पर ढेर सारी किताबें, इधर-उधर पड़े हुए बेतरतीब कपड़े,
कुछ और जरुरत के सामान, कमरे का एक श्रोत प्रकाशमान.

बस मैं होता हूँ और मेरा कल्पना लोक होता है.
मन जो सृजित करता है, कोरे कागज़ पर साकार होता है.

मैं शब्दों से खेलता हूँ, ख़ामोशी से बाते करता हूँ,
सन्नाटे को सुनाता हुआ, कविता बनाता हूँ

नहीं! मैं कवि नहीं हूँ, मेरी कविता में कोई रस नहीं होता,
मैं लेखक भी नहीं हूँ, मेरे पास लिखने को कुछ नहीं होता.

मैं आजाद होता हूँ, अपने ख्यालों की दुनिया में,
अपने तनहा बंद कमरे में, मैं बहुत खुश होता हूँ.

जीतेन्द्र गुप्ता 

3 comments:

  1. मन की व्यथा कथा को समेटे पंक्तियाँ ....

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  2. bahut khub likha hai.....kori man abhivyakti...

    isiliye main bhi kehta hoon ki

    na rasmo se na reet se, kalam khush hoti he nij geet se....
    Ehsaas**

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  3. दिलो दिमाग कभी खाली नहीं होते....लिखने को कैसे कुछ नहीं है .....
    और आपकी कविताओं में बहुत रस है...
    लिख्ते रहें....

    अनु

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