Saturday, August 25, 2012

तुम और मेरी कविता...

हाथ में कलम लेता हूँ,
और कोरा कागज-
सामने रख कर,
न जाने क्या सोचने लगता हूँ?

जब मैं लिखना चाहता हूँ-
तब भाव नहीं पनपते.
और जब भाव उमड़ते हैं,
तो वक़्त ही नहीं मिलता.

जब वक़्त मिलता है-
तब शब्द नहीं मिलते.
और जब सब-कुछ होता है,
तो कलम ही कही खो जाती है.

सोचता हूँ, कुछ तुम्हारे बारे में लिखूं,
उन हसीं लम्हों को फिर से जिन्दा करूँ.
जिनकी कब्र, मैं दिल के-
किसी कोने में बना आया हूँ.

पहले, जब तुम सामने होते थे,
मेरे होश गुम हो जाते थे.
कहीं उन लम्हों को फिर से जिन्दा करके,
मैं अपनी कविता के शब्दों को न खो दूँ?

या तो तुम्हे ही पा लूँ,
या कविता ही बना लूँ.
कुछ पाने के लिए कुछ खो दूँ?
या तुम्हारा नाम ही मैं कविता रख दूँ?
जीतेन्द्र गुप्ता 

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