सुबह से ही बादल छाए है,
पर बारिश की एक बूंद भी नहीं गिरी.
हवा रात से ही बहुत तेज बह रही है,
पर यह आंधी और तूफान तो नहीं.
यह निश्चित नहीं की बारिश होगी ही,
प्यासी धरती प्यासी ही क्यों न रहे?
और इन हवाओं में भी शायद अब आंधी-
या तूफान बनाने की हिम्मत नहीं बची.
सब कुछ अनियमित सा हो गया है,
गर्मियां लम्बी खीचने लगी है.
सर्दियाँ, खुद ठण्ड से, सिकुड़ने लगी है.
और बारिश का तो कहना ही क्या?
क्या इन हवाओं में भी मिलावट हो गयी है?
या बरखा भी अब अशुद्ध हो गयी है?
सदियों से मानव की संगति में रहकर-
यह पृथ्वी भी जैसे भ्रष्ट हो गयी है.
"जीतेन्द्र गुप्ता "
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