दीवार में लगे झरोखे से,
कमरे में धूप उतर आई.
चुपके से बिना कुछ कहे,
बिना मुझे कुछ बताये.
उस पीले रंग के धब्बे पर,
सहसा मेरी नज़र गयी.
मेरी आंखे रोशन कर के,
वो खुद भी चमकने लगी.
मैं उसको निहारता रहा,
परत दर परत.
आँखों में उसको भरता रहा,
काफी देर तलक.
कुछ देर पहले,
यह इस कोने में थी.
और अब चल कर
उस कोने चली गयी.
शाम होते-होते,
सूरज ढल जायेगा.
और कमरे में आई किरण का,
नामो-निशान भी मिट जायेगा.
और कमरा फिर से,
खाली हो जायेगा.
जैसे किरण कभी यहाँ-
आई ही नहीं थी.
क्या मैं किरण-
की ही बात कर रहा हूँ?
या फिर ये मेरी जिंदगी है?
जिस पर पर मैं ये सवाल कर रहा हूँ?
जीतेन्द्र गुप्ता