विचारो के बुलबुले,
बनते रहते है,
मन के किसी कोने में,
अनजाने ही, अनचाहे ही।
सोचता हूं,
कुछ को कैद कर लूं,
पर हाथ लगाते ही,
बुलबुले फूट जाते है।
जानता हूं इनकी तकदीर,
ये बनते है, फूटने के लिए,
पर मेरी भी ये जिद है इन्हें,
अपना बनाना है एक दिन।
जितेंद्र
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