मैं नहीं चाहता की, मैं कुछ कहूँ,
तुम्हारे बारे में, जो तुम्हे बुरा लगे.
यहाँ तक की मैं सोचना भी नहीं चाहता,
कुछ भी तुम्हारे बारे में, जो मुझे बुरा लगे.
कोशिश करता हूँ खुश रहने की,खुद में-
ही व्यस्त रहने की, जिससे मुझे अच्छा लगे.
पर सारी कोशिशे और मेरे सारे प्रयास, दूर अनंत-
में कहीं गुम हो जाते है, जैसे किसी को पता न चले.
क्या तुम फिर से वैसे नहीं बन सकते?
जैसे पहले थे, हंसते हुए और मुस्कराते हुए.
क्या तुम्हे किसी ने कहा है की मुझसे-
बातें न करो, शायद मुझको बुरा बताते हुए?
मैंने कोशिश की थी, पहले भी और आज भी,
तुम्हे हँसाने की, खुद झूठे ही मुस्कराते हुए.
और एक पल को लगा था, की तुम मान गए हो.
देखा था तुम्हे मुस्कराते हुए, पर नज़रें मुझसे चुराते हुए.
पर तुम फिर वैसे ही बन जाओगे, जैसे पहले थे,
यह मैंने नहीं सोचा था, न सोते हुए न जागते हुए.
तुमको मनाने के लिए, जिन रास्तों पर मैं चला था,
अब आगे वे बंद हो गए है, भ्रमित मुझे बनाते हुए.
मैं क्या करूँ? किस रास्ते पर चलूँ?
दुविधा खड़ी है मेरे समक्ष, मुंह फैलाये हुए.
खैर! मैं अब कभी भी, तुमसे कुछ न कहूँगा.
तुम्हे जो अच्छा लगे वो करो, बस खुश रहो, खिलखिलाते हुए.....
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