Sunday, August 18, 2013

"अधर्म की परिभाषा"


लोग कहते है की मेरा धर्म हिन्दू है,
क्यों कि मेरी पैदाइश हिन्दू थी, और 
मेरे माता-पिता हिन्दू थे, और इसलिए-
हमें हिन्दू ईश्वर को पूजना चाहिए.

पर मैं तो कभी मंदिर जाता नहीं,
किसी भी ईश्वर के सामने कभी,
अपना शीश झुकाता नहीं.
फिर मैं हिन्दू कैसे हुआ?

क्या सिर्फ हिन्दू परिवार में पैदा-
होने से मेरा धर्म हिन्दू हो गया?  
क्या मुझे इतना भी अधिकार नहीं-
की मैं अपना धर्म खुद चुन सकूँ?

और ये भी की क्या धर्म हमारे-
जीवन में इतना ही जरुरी है कि-
बिना धर्म का आवरण ओढ़े,
इस दुनिया में हम जी भी नहीं सकते?

आखिर धर्म की जरुरत ही किसे है?
शायद उन्हें जो बुरा काम करते है?
पर मैंने तो कभी कुछ बुरा किया नहीं,
इसलिए मुझे धर्म की जरुरत भी नहीं.

इस धरती पर पहले इंसान आया,
फिर इंसान ने अनेक धर्मों को बनाया.
यानि धर्मों का जन्मदाता इंसान है,
न की इंसानों के जन्मदाता ये सभी धर्म.

प्रकृति हमें जीवन देती है,
हवा और पानी देती है. और ये सब
देने से पहले वो ये नहीं देखती,
की हमारा धर्म क्या है?

क्या हमने कभी सुना है, की ईश्वर ने,
पानी सिर्फ हिन्दुओं के लिए बनाया है?
या अल्लाह का ये हुक्म है की केवल,
मुस्लिम ही इस हवा में सांस ले सकते है?

ये सभी धर्म क्या केवल ये नहीं बताते,
की तुम्हारी टोपी मेरी वाली से ख़राब है?
चाहो तो आकर मुझसे लड़ लो और देख लो!  
क्या ये धर्म हमें लड़ाने के हथियार नहीं है?

क्या हम सबका केवल एक ही धर्म नहीं- 
हो सकता की हम सभी अधर्मी हो जाएँ?
विश्व का सबसे महान धर्म जो कहता है-
कि हम क्यों किसी के आगे शीश झुकाएं?

हम क्यों खुद को किसी बंधन में बांधे?
जब हम मुक्त होकर जी सकते है?
हम क्यों खुद को हिन्दू या मुसलमान कहे,
जब हम केवल इंसान बन कर जी सकते है?

जितेन्द्र गुप्ता

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