Friday, August 16, 2013

पंछी और आकाश..

सुबह देखा था-
पंछियों को कही जाते हुए.
उड़ते हुए, एक साथ-
पंख हिलाते हुए.
और आकाश के-
नीले पृष्ठभूमि पर,
अनजानी-अनायास,
आकृतियाँ बनाते हुए.

और फिर शाम में
भी इन्हें देखा था.
वैसे ही उड़ते हुए,
पंखो को हिलाते हुए.
उसी आकाश के, लेकिन-
धुंधले पृष्ठभूमि पर,
वैसी ही अनोखी
संरचनाएँ बनाते हुए.

वो शायद पंछी नहीं थे,
हम जैसी आत्माएं थी.
जो आई थी इस धरा पर,
हंसते हुए, मुस्कराते हुए.
और एक दिन ये भी चली जाएँगी,
उन्ही पंछियों की तरह.
जिंदगी की शाम में
ढलते हुए, दम तोड़ते हुए.

जितेन्द्र गुप्ता


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