सच में तुम हो?
या मुझमे कहीं गुम हो?
कहने को हर जगह हो,
पर जाने; तुम कहा हो?
दूर छितिज पर तुम हो,
बंद पलको में भी हो,
मन की गहराई में तुम हो,
नभ की उंचाई में भी हो.
कुछ कहूँ?
जो सुनो?
ना कहूँ?
कुछ सुनो;
दिनकर की किरणें है,
मन की तरंगें,
कुछ तुम कहो;
छाए मन में उमंगें.
छाया आकाश;
या नीला समुन्दर?
नीला आकाश;
या गहरा समुन्दर?
भ्रमित हूँ?
व्यथित हूँ?
मैं क्या हूँ?
विचित्र;
करना क्या है?
ना कोई नशा है,
है भी अगर तो,
वो जाने कहाँ है?
मन में बसा था,
मन में बसा है,
मन का वो वासी;
अब जाने कहाँ है?
© जीतेन्द्र गुप्ता
Wow.. awesome lines beautyful poem...
ReplyDeleteबहुत खूब...
ReplyDeleteसुन्दर कविता के लिए बधाई...
Bahut hi Prabhavi Rachna
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