Tuesday, December 12, 2017

कशमकश.....

"हम समझ गए, आपका मन नही है इसलिए हम फ़ोन रखते है", उन्होंने कहा और फ़ोन काट दिया। और मैं जैसे बीच मझधार डूबता उतराता रहा। खुद को ये समझाता रहा, की जब उनके हिसाब से मेरा वो बाते करने का मन होगा, तो ही वो बाते करेगी, नही तो यही कहेंगी, "हम समझ गए, आपका मन नही है, इसलिए हम फ़ोन रखते है"। शायद उन्हें सिर्फ अपने मन का ख्याल आता है, मेरे मन का नही। उन्हें लगता है कि मैं ही उन्हें उत्पीड़ित करने वाला इंसान हूँ, और वो ही केवल रोना जानती है। जब कि सच्चाई ये है कि रोता मैं भी हूँ, बस आंसू नही निकलते। उत्पीड़ित मैं भी होता हूँ, बस आह नही निकलती।
उनका कहना था कि मुझे पढ़ना चाहिए, तैयारी करनी चाहिए। उन सब को मुझसे बहुत उम्मीदें है कि मैं DM या SDM बनूँगा, और फिर हमारे पास रुपया, पैसा, धन, दौलत, गाड़ी, बंगला, इज़्ज़त, शोहरत, नाम और सम्मान सब कुछ होगा। उनकी मुझसे जो उम्मीदे है उसको मैं नाउम्मीद में कैसे तब्दील कर सकता हूँ? बहुत मुश्किल है, और बहुत कष्टदायी भी। वो किसी ऐसे परिचित का उदाहरण दे रहीं थी जो BSA है। बता रहीं थी कि उस BSA ने इतनी दौलत बना ली है कि उसके पास पैसे रखने की जगह नही है। इतनी अकूत दौलत इकट्ठा हो गयी है कि पूरा का पूरा गांव ही उसके पैसे से शराबी बन गया है। उसकी बातें सुनकर मुझमे सो रही पैसे बनाने की क्षुधा फिर से जागृत होने लगी। और शायद अप्रत्यक्ष रूप से वो मुझे भी प्रोत्साहित कर रही थी कि मैं भी उसी BSA जैसा बनू। पर मेरी समझ मे नही आता कि पहले मैं पढू, लिखू, और सरकारी सेवा में जाऊ, तब लूट खसोट कर के दो नंबर का पीटू। इससे अच्छा है कि मैं केवल अर्थसाधना में ही न लग जाऊ? आखिर अंतिम उद्देश्य पैसा ही कमाना है तो पढ़ने की क्या आवश्यकता है? क्यों मैं लक्ष्मी को साधने के लिए सरस्वती को साधन बनाऊ?
इन दिनों अजीब सी कशमकश से गुजर रहा हूँ। सच मे अजीब सी कशमकश से। मुझमे भी दो नंबर का पीटने का शुरूर छा रहा है। पर उसमे नैतिकता आड़े आ रही है। वैसे तो इन दिनों ज्यादा कुछ दो नंबर का मिलता नही,लेकिन जब मिलता है तब नैतिकतावश खुद पे शर्म आती है। जमीर गवाही नही देता की इस तरह मैं वो इकट्ठा करू। पर नैतिकता को एक किनारे रख के मैं पीट ही देता हूँ। लेने के कुछ समय तक मुझे खुद पे शर्म आती है। फिर अच्छा लगने लगता है। पीटने के बाद अच्छी फीलिंग आती है। पर साथ ही एक कसक रह जाती है कि मेरे ही पद पे अन्य जगहों पे रहने वाले लोग मुझसे ज्यादा पीट रहे होंगे। मैं उतना नही कर पा रहा हूँ। और मुझमे और ज्यादा पीटने की भूख लग जाती है। ये सिलसिला चलता रहता है। थमता नही। और मैं इसी कशमकश में डूबता उतराता हूँ। जब कुछ नही मिलता तो खराब लगता है, जब कुछ मिलता है तो भी शर्म आती है, हालांकि मिल जाने के कुछ देर बाद अच्छा लगने लगता है, किन्तु ये खुशी मेरी भूख को बढ़ा देती है। और मुझे फिर से खराब लगने लगता है। कशमकश का ये सिलसिला चलता रहता है, और मैं इसी में डूबता उतराता रहता हूँ। मेरी समझ मे नही आता कि मेरी भूख क्यों बढ़ रही है? मेरे खर्चे तो सीमित है, कोई महंगा शौक भी नही है। तो इतनी भूख क्यों?
आज तक जितना भी मैंने इस जगह पे पीट कर बनाया होगा, सब मैंने घर पे दादी अम्मा को समर्पित कर दिया है। उस राशि से बहुत कम का इस्तेमाल ही मैंने शायद किया होगा। शायद मैं ऐसा इसलिए करता हूँ ताकि घर वालो को ये लगे कि कल तक जो पैसे वो दिया करते थे, अब उनकी लेने की बारी आई है। पर ये अर्धसत्य ही है।
अभी मेरे पिताजी को ही मेरे ही विभाग के एक अधिकारी को एक मोटी सी राशि बतौर सुविधाशुल्क देनी पड़ी ताकि काम हो जाये। उमे मेरी भी पहचान काम नही आई। जब पिता जी ने मुझे इस बारे में बताया तो मेरा मन घृणा, क्षोभ, क्रोध और शर्म से भर गया। मेरा विश्वास इंसानियत से उठ गया। ये कैसा समाज है जिसका हम हिस्सा है? यहाँ करदाता भी भ्रष्ट, कर अधिकारी भी भ्रष्ट और कर वसूलने वाली सरकारे भी भ्रष्ट। जब सब अपनी अपनी जेबे भरने में लगे हुए है तो जरूरत क्या है इस भ्रष्ट तंत्र की। क्या जरूरत है ऐसे कानून की, जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता हो?
इस भ्रष्टतंत्र में आकर मैं भी दोगला हो गया हूं। लेते वक्त मुझे जो भ्रष्टाचार नही दिखता, देते वक्त वो बहुत चुभता है। खलता है। धीरे धीरे मेरा विश्वाश भी इंसानियत से उठ रहा है। अब मुझे सब कुछ पैसा ही दिख रहा है। भले ही मेरी जरूरते सीमित हो, भले ही मुझे कोई महंगा शौक न हो पर सब कुछ शायद पैसा ही है।
मुझे माफ़ कर देना की मैं तुम सब की उम्मीदों को नाउम्मीदी में बदल रहा हूँ। जब तुम्हारी और सब की नज़रों में सब कुछ पैसा ही है तो मैं पैसा ही बनाने पे ध्यान केंद्रित करता हूँ। सरस्वती मेरे लिए मायने नही रखती जब लक्ष्मी जी मेरा लक्ष्य है।
जितेंद्र

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