Monday, December 2, 2013

“बचपन का दोस्त”

उस दिन जब मैंने उसे देखा, तो एकाएक पहचान नहीं सका. वह अपनी ट्राली को खींचता हुआ सड़क पर नंगे पाँव ही चला जा रहा था. मैं अपने काम पर जाने वाले रास्ते पर था. हम दोनों की नज़रें कुछ देर तक एक-दुसरे से उलझी रही, पर समयाभाव की वजह से न मैंने रुकना मुनासिब समझा और न उसने रुकने की जहमत उठाई.
पर मैं उसको पहचानता तो था क्यूँ की यह बात मुझे आधे घंटे बाद याद आयी थी. “मनमोहन”, हाँ! यही तो नाम था उसका. जब मैं और वो छोटे थे, हम एक ही स्कूल में पढ़ते थे. लेकिन जहाँ मैं छोटा होने की वजह से छोटा था, वहीँ वो असामान्य रूप से छोटा था. दुसरे शब्दों में ‘बौना’ था. यहाँ तक की उस समय भी वो मेरी लम्बाई का आधा था पर उसके चेहरे पर, हमारे चेहरों की अपेक्षा, हमेशा दुगनी मुस्कान खिली रहती थी. हालाँकि कक्षा के कई लड़के उसको हमेशा चिढाते और उसका मजाक उड़ाते. हम दोनों की शारीरिक लम्बाई में असमानता, कभी हमारी मित्रता में आड़े नहीं आयी. हम दोनों साथ ही स्कूल जाते. वो स्कूल जाने के आधे रास्ते पर मेरा इंतजार करता, फिर स्कूल में साथ में खाना खाते और साथ ही घर वापस आते. आधे रास्ते पर उसका-हमारा क़स्बा अलग हो जाया करता था. कुछ सालों तक वो हमारे साथ पढ़ा, फिर उसका स्कूल आना बंद हो गया.
स्कूल के दिनों में, गर्मी की दो महीनो की छुट्टी के दौरान, कौन हमसे अलग होता था, इसकी जानकारी हमें अक्सर ना हो पाती. बालमन इतना हिसाब-किताब न रख पाता. लेकिन कुछ दिनों बाद हमें पता चला था की मनमोहन के पिता जी, मनमोहन को किसी सर्कस कम्पनी को बेचने जा रहे थे. यह बात जितनी आश्चर्यजनक थी, उतनी ही सच भी थी. सर्कस में हमें बौनों का जोकर बनते देखना बहुत पसंद आता था, पर इस तस्वीर का दूसरा पहलु ये था, की उस फेहरिस्त में मेरा दोस्त मनमोहन भी शामिल होने जा रहा था.
एक बाप का दिल पत्थर हो सकता है, तभी शायद उसके पिता जी उसे बेचने के बारे में सोच रहे थे. पर एक माँ का दिल तो माँ का ही होता है वो अपनी संतान से कभी अलग नहीं हो सकती. भले ही उसकी संतान सामान्य हो या असामान्य. उसकी पिताजी की इच्छाओं पर उसकी माँ ने पानी फेर दिया था, और मनमोहन को बेचने का ख्याल उसके पिता जी को त्यागना पड़ा था.

उसके बाद मैंने मनमोहन को फिर कभी स्कूल में नहीं देखा. मैं अपनी पढाई के उद्देश्य से लगातार घर से बाहर ही रहा, और काफी दिनों बाद अब मेरी नौकरी गाँव के पास लग गयी थी. पर आज उसे ट्राली खींचते हुए देखकर सहसा ये यकीन करना कठिन हो गया था, की मनमोहन आज भी उतना ही लम्बा था जितना वो बीस साल पहले था. फर्क सिर्फ इतना था की उसकी उम्र अब सात के बजाय सताइस हो गयी थी.  

जितेन्द्र गुप्ता 

No comments:

Post a Comment