सुबह-सुबह घूमने के लिए निकला ही था कि पाँव अचानक शाही पुल कि तरफ मुड़ गए। सामने गली थी जो थोड़ी ढलान पर थी और सीधे गोमती नदी की तरफ जाती थी। गली के किनारे हर तरफ मकान बने हुए थे और दोनों तरफ नाली बह रही थी। उसी नाली के बगल में एक छोटा सा लड़का भी बैठा हुआ था जो नाली में बह रहे गंदे पानी को अपनी बाल्टी में इकठ्ठा कर रहा था। नाली से सड़ी हुयी बदबू और अमोनिया कि गंध भी आ रही थी पर वो लड़का इन बातों से अनजान अपने काम में तल्लीन था।
"छोटू! ये तुम क्या कर रहे हो?" मैंने उस लड़के से उत्सुकतावश पूछा। उस लड़के ने मुझे क्षण भर के लिए देखा फिर अपने काम में दुबारा जुट गया। मैंने उससे दुबारा पूछने कि कोशिश की, "इतनी सुबह तुम नाली क्यों साफ कर रहे हो?"
"मैं नाली नहीं साफ कर रहा हूँ।" इस बार उस लड़के ने जवाब दिया, "मैं इस नाली के पानी में सोने-चाँदी के छोटे टुकड़ों को खोज रहा हूँ।"
नाली में सोने-चाँदी के टुकड़े खोजना अजीब बात थी, फिर भी मैंने उससे आगे पूछा, "भला इस गन्दी नाली में तुम्हे सोने-चाँदी के टुकड़े कैसे मिलेंगे?"
तो उसने कहा, "नाली का ये गन्दा पानी आस-पास बने स्वर्णकार वर्ग के लोगो के घरों से आता है, ये लोग अपने घरों में ही सोने-चाँदी के जेवरों कि कटाई, ढलाई और धुलाई करते है, और उनकी सफाई के दौरान अक्सर सोने-चाँदी के कुछ टुकड़े इसी नाली में बहते हुए आ जाते है। मैं उसे ही ढूंढ रहा हूँ।"
बात लगभग स्पष्ट हो गयी थी, पर इस तरह से वो दिन भर में कितने पैसे बना लेता होगा? जब मैंने उससे यह बात पूछी, तो उसने कहा, "३०० से ५०० रूपये के लगभग हर रोज। क्यों कि मैं दिन भर कि जमा पूंजी को उन्ही लोगो को वापस बेच देता हूँ, जिनके घरों से निकले गंदे पानी में मैं इसे खोज रहा हूँ।"
इसके बाद वो लड़का मुझसे बात करना बंद कर अपने काम में दुबारा उसी तल्लीनता से जुट गया। मैं उस लड़के को वही छोड़ अपने रास्ते पर आगे बढ़ गया। 'वास्तव में हमारा कार्य हमारे दृष्टिकोण से परिभाषित होता है और यह इस पर निर्भर करता है कि हम अपने कार्य को किस रूप में देखते है।' मैंने सोचा, 'एक छोटा लड़का, जो कि नाली साफ़ कर रहा था, वास्तव में वो नाली न साफ़ करके उसके गंदे पानी में सोने-चाँदी के टुकड़े खोज रहा था।'
जितेन्द्र गुप्ता