सवाल कई है, जो उमड़ घुमड़ कर मेरे चिन्तनलोक में मंडरा रहा है। पर सबसे ज्यादा वो एक प्रश्न, जिसपे मैं विचारोत्तेजित हूँ, वो ये है कि, मैं क्या करूँ? मैं क्या कर सकता हूँ? क्या मैं कुछ कर पाऊंगा? कहानी कुछ इस तरह से है कि पिता जी ने कॉलेज खोलने के लिए जिस ट्रस्ट का पंजीकरण करवाया था, उसपर आयकर की नोटिस आयी। जवाब देने के लिए जब पिता जी लखनऊ गए, तो अधिकारी ने उनसे डेढ़ लाख की मांग की। पिता जी पचास हजार देने को तैयार थे, पर वो नही माना, उन्हें ट्रस्ट का पंजीकरण निरस्त कर दिया। अब मामला अधिकरण में गया है। मुझे दुराशा ही नही नही अपितु पूरा यकीन है कि अधिकरण में दो या तीन लाख से नीचे की मांग तो नही ही होगी। उस अधिकारी के पास पिताजी केवल चार्टर्ड अकाउंटेंट के साथ ही नही गए थे, बल्कि कई उसी पद पर रह चुके भूतपूर्व अधिकारियों का रिफरेन्स ले के गए थे। लेकिन उसे पैसे चाहिए थे तो बस चाहिए थे। उसने अपने पद की शक्ति का भरपूर प्रयोग किया और अब ज्यादा दिए बिना बात ही नही बनेगी। कहानी अभी जारी रहेगी, लेकिन यक्ष प्रश्न वही रहेगा, मैं क्या करूँ? मैं क्या कर सकता हूँ? क्या मैं कुछ कर पाऊंगा?
अपने कार्यालय में
अभी पिछले हफ्ते मैने एक फ़िल्म देखी थी। मैट्रिक्स!
"Hold on to your dreams, do not let them die, we are lame without them, birds that can not fly..." Ruskin Bond
Sunday, January 7, 2018
कशमकश (भाग 2)
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