सर्दियाँ आयी तो अपने
साथ सर्दी-जुकाम भी लायीं और 'ईश्वर', जो इस साल बारह वर्ष का होने जा रहा था, हर बार
की तरह इस बार भी इन बीमारियों से बच ना सका। मजबूरन उसे हर काम छोड़ कर रजाई में घुसना
पड़ा। सर्दी-जुकाम के साथ उसे बुखार भी हो आया था। ईश्वर के बिस्तर के पास ही, उसकी
दादी भी लेटी थी, जो अपनी पुरानी यादों में खोयी हुयी, किसी सोच में डूबी थी। पर बीच-बीच
में वो ईश्वर को उसके दादा जी से जुड़े कुछ अनसुने किस्से भी सुना रही थी। ईश्वर के
दादा जी दो साल पहले ही इस दुनिया से चल बसे थे। अब ये यादें ही थी जो ईश्वर की दादी
को अपना जीवन आगे जीने का हौसला देती थी।
ईश्वर, हालाँकि दादी
की कहानीयाँ बड़े ध्यान से सुन रहा था, पर उसका दिमाग कही और टंगा था। उसके सारे दोस्त
खेल के मैदान पर क्रिकेट मैच खेल रहे होंगे और इस मैच में उसे भी खेलना था, पर ख़राब
तबियत ने उसकी सभी योजनाओं पर पानी डाल दिया था।
दादी ने अपनी एक कहानी
अभी ख़तम ही की थी, कि ईश्वर के मन में, उसके दादा जी से सम्बंधित एक सवाल कौंधा-"दादी!
ये बताइये कि दादा जी इस वक़्त कहाँ होंगे?"
यह सवाल कुछ रहस्यमय
था क्यों कि ईश्वर अपने दादा जी की बात से अच्छी तरह परिचित था, पर फिर भी दादी ने
उससे पूछा-"मतलब?" इस पर ईश्वर ने कहा- "मेरा मतलब है कि आदमी अपनी
मृत्यु के बाद कहाँ जाता है?"
दादी ने ईश्वर को
"श्री मद भागवत गीता" का एक श्लोक सुनाया- "ना जायते म्रियते वा कदाचिन,
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः -------" और इसका अर्थ भी बताया। "आत्मा न तो
जन्म लेती है और ना ही मरती है; यह तो सिर्फ एक नश्वर शरीर से दूसरा नश्वर शरीर बदलती
रहती है जब तक उसे जन्म मरण के बंधन से मुक्ति ना मिल जाय।" दादी ने कहना जारी
रखा, "तुम्हारे दादा जी भी या तो मोक्ष प्राप्त कर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त
हो गए होंगे या पुनः किसी नश्वर शरीर में उनका जन्म हो गया होगा।"
ईश्वर दादी कि बातों
में खो सा गया और सोचने लगा- "क्या वाकई हम जिस शरीर में रहते है वो नश्वर है?
क्या वाकई में, मैं ये नश्वर शरीर न होकर एक आत्मा हूँ जो अमर्त्य है?" अनायास
ही ईश्वर को यह आभास हुआ कि उसके बीमार शरीर में एक ज्ञान रूपी ऊर्जा संचारित होने
लगी है। उसे महसूस हुआ कि इस वक़्त उसके शरीर की तबियत ख़राब है, उसकी नहीं। क्यों कि वो तो वह आत्मा है जो अजर-अमर
है।
ईश्वर को यकीन हो गया
कि उसे कुछ नहीं हुआ है। उसने अपना बिस्तर त्याग दिया, और क्रिकेट मैच खेलने जाने को
तैयार होने लगा। सहसा उसकी नज़र अपने बिस्तर पर गयी। उसने देखा-'बिस्तर पर उसका बीमार
शरीर अभी भी वैसे ही पड़ा था। शायद वो आजाद हो चुका था।
जितेन्द्र गुप्ता,
ओलंदगंज