आज फिर, वक़्त खामोश सा लगता है,
अपने में खोया परेशान सा लगता है,
मेरी तरफ देखता है एक पल के लिए,
फिर नज़रे चुरा कर अजनबी सा बन जाता है।
जैसे की वो मुझे पहचानता ही नहीं,
मेरे बगल से ही गुज़र जाता है,
फिर घूमकर मेरे पास आता है, और-
मुझसे मेरे ही घर का पता पूछता है?
में भी अनजान बन जाता हूँ, और-
मुस्कराता हूँ; उसको कुछ नहीं बताता,
जब वो मुझसे अनजान बन सकता है,
तो अजनबी बन जाना खुद मेरा फ़र्ज़ बन जाता है।
हम दोनों को पता है की सालों से,
काफी वक़्त गुजारा है हमने एक साथ,
एक-दुसरे से वाकिफ है, हम अच्छी तरह,
पर उन रिश्तों में अब कड़वाहट भर चुकी है।
इसलिए पिछली बातों को भूलकर,
हम बहुत आगे निकल आए है ,
एक नयी शुरुआत करने के लिए,
हम फिर अजनबी बन आए है।
जितेन्द्र गुप्ता